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किरण ५ ]
श्रमण-संस्कृति और भाषा
भापाष्टि
"तस्मादेषा संस्कृता वागुद्यत" इसलिये संस्कृत वाणी श्रमणसंस्कृतिके अग्रदूत महावीर और बुद्धने जिम बोलनी चाहिये, यह लिखकर संस्कृत भाषाको ही साधु. समय मगधभूमिको अपने पुण्यजन्मसे पूत किया था उस शब्दवाली कहा है । पात जल महाभाष्य " शाबरभाष्य" समय न केवल वहां यज्ञहिंसामूलक क्रियाकाण्डोंका ही वाक्यपदीय श्रादिमे स्पष्ट लिखा है कि-गी आदि संस्कृत प्रचार था, किन्तु भाषाके विषयमें भी विचित्र रूढि प्रचलित शब्द ही साधु हैं नथा गौशब्दके गावी गौणी गोता गोपोथी। याज्ञिक द्विज वैदिक मंत्रोंके स्वरसाधनपूर्वक पाठ कर तलिका आदि प्राकृतरूप अपभ्रंश हैं, असाधु हैं, न्याकरण लेने मानसे धर्म मानते थे, क्योंकि उस समय वैदिक मंत्रों से सिद्ध न होने के कारण दुष्टशब्द हैं । इनका उच्चारण की अर्थपरम्परा लुप्तप्राय हो गई थी। यास्काचार्य अपने बज्र बनकर बोलने वालेका नाश कर देता है. श्रादि । निरुक्त मे वैदिक मन्त्रोका स्पष्ट अर्थ नही करके मान शब्दोंके साधुत्व असाधुत्वके इस दुविचारने उस समय तद्विषयक विविध मत-मतान्तरोका उल्लेख करके ही चुप धर्मको मात्रशब्दोके अन्दर ही कैद कर रखा था। संस्कृत हो जाते हैं । इससे यह स्पष्ट है कि उस समय वैदिक भाषामे कुछ भी कह दीजिये वह धर्मवाक्य हो जाता था। मन्त्रीकी अर्थ परम्परा प्रायः टूट चुकी थी और इसका यह उत्तरकालीन ब्राह्मण थाचार्योंने तो यहां तक लिख दिया स्वाभाविक परिणाम था क मात्रअमुक प्रकारसे स्वर- है कि जो ब्राह्मण अपभ्रंश शब्दोंका उच्चारण करता है साधनापूर्वक वैदिक मन्त्रोके उच्चारण मात्रसे धर्म माना उसे प्रायश्चित करके शुद्ध होना चाहिये। शब्द शास्त्रियोंने जाय।
इसीलिये संस्कृतशब्दों में ही वाक्यशक्ति मानी है, प्राकृत वैदिकमन्त्र वैदिक्मंस्कृतमे रचे गये हैं । उसी वैदिक- और अपभ्रश शब्दों में नही। जहां व्यवहारमै प्राकृत शब्दों संस्कृतका ही विकसितरूप लौकिक संस्कृत है। भारतवर्षके से अर्थबोध होता है वही यह अम्मङ्गत कल्पना की गई कि धर्मोंका पुश्तैनी ठेका प्राचीन कालसे ही धर्मजीवी ब्राह्मण “प्राकृत शब्दोंको सुनकर प्रथम ही संस्कृत शब्दोंका स्मरण वर्गने ले रक्खा था। यही कारण है कि धर्मजीवी बाहाण प्राता है फिर उनसे अर्थबोध होता है।" वर्गने धार्मिक कार्यों के सिवाय लौकिक व्यवहारमे भी संस्कृत इस तरह जब सस्कृत बोलीका यह दुरभिमान अपनी भाषाके प्रयोगको ही साधु और पुण्य साधक होनेका फ़तवा पराकाष्ठाको प्राप्त हो रहा था और प्राकत या मागधी भाषा दे दिया। उस समय मगध देशकी श्रामफहम जनभाषा को स्त्री, शूद्र तथा जनसाधारणकी बोली कहकर तिरस्कार मागधी थी । मागधी प्राकृत भाषाका ही एक प्रकार है। की दृष्टि से देखा जाता था उस समय भगवान् महावीरने प्राकृत भाषाको, जो उस समयकी जनसाधारणकी बोली थी, अपनी तप-साधना करके कैवल्य प्राप्त किया। इस अहिंसा धर्मजीवी ब्राह्मणवर्गने मात्र अनादर और सिरस्कारकी दृष्टि की तेजोमूर्तिने अपना उपदेश कर्मकाण्डजीवी ब्राह्मणवर्ग से ही नहीं देखा बल्कि उसका उरचारण करना तक पाप- की तरह सस्कृतभाषामें न देकर सर्वजनहिताय सर्वान्त:रूप घोषित किया । इसी पुराने प्राकृत भाषाद्वेषके उद्गार सुखाय अर्धमागधी भाषामे दिया । उन्हें कुछ इने-गिने पातञ्जल-महाभाष्य आदिमे पाये जाते हैं। भाष्यकार' संस्कृतभाषियोके साथ भाषाविनोद नहीं करना था, उस लिखते हैं कि "तस्माद् ब्राह्मणेन म्लेच्छित वै नाप- दिव्य अहिंसकका तो लक्ष्य था संसारकी समस्त कषायभापित वै म्लेच्छो हवा एप यदपशब्दः । ब्राह्मणको ज्वालासे सन्तप्त प्राणियोंको शान्ति और अहिंसाके अपशब्द या म्लेच्छ शब्दोंका उच्चारण नहीं करना चाहिये। उपदेश देनेका। जितने अपभ्रंश हैं वे सब म्लेच्छ शब्द हैं। वाक्यपदीय हरिभद्र सूरिने दशवकालिक टीकामें एक प्राचीन श्लोक में एक पुराना ऋषिवाक्य पाया जाता है कि “साधूनां उद्धत कर स्पष्ट लिखा है किसाधुभिस्तस्माद् वाच्यमभ्युदयार्थिभिः"--धर्मार्थी साधु- "बालस्त्रीमन्दमूम्बाणां नृणां चारित्रकाक्षिणाम् । पुरुषोंको साधुशब्द बोलना चाहिये। तैत्तिरीय संहिता में अनुग्रहार्थ तत्त्वज्ञैः उपदेश: प्राकृतः कृतः ॥" १. पस्पशा श्राहिक । २. वाक्यपदीय १११४१। ३.६।४।७। ४. पस्पश्राह्निक। ५. शश२८। ६. १।१४६ ।