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अनेकान्त
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अर्थात् अपने चारित्रकी उन्नते चाहने वाले बालक, लिये, उन्हें शब्दजालसे हटाकर धर्मके प्राण की सीधी स्त्री तथा मूर्खसे मूर्ख लोगोंके उपकार के लिये भगवानका अनुभूति करानेके लिये सबकी बोली अर्धमागधीमे उपदेश उपदेश सबकी बोली प्राकृत भाषामे होता था। प्राचार दिया। दिनकर में भी-थीबालवायणथं पाइयमुइयं जिणवरेहि" प्राचार्य प्रभाचन्द्र क्रियाकलापकी टीकामे तथा श्रुतसागर. स्त्री और बालक जैसे अल्पज्ञानयोंके समझनेके लिये जिन- सूरि दशनमाभृत (गा० ३५) की टीकामे 'अर्धमागधी'का अर्थ वरने प्राकृत भाषामें उपदेश दिया" इस आशय की प्राचीन लिखते हैं कि "धं भगवद्भापायां मगधदेशभाषामकम्, गाथा उद्धृत है।
अर्धच सर्वभाषामकम्" अर्थात भगवानकी भाषामे श्राधे अर्धमागधी भाषा उस समय प्राधे मगध देशकी जन
शब्द तो मगधदेशकी भाषाके हैं तथा प्राधे सभी भाषाओं साधारण की बोली थी। भगवान् महावीरका विहारक्षेत्र
के। यह युक्तिसंगत भी है क्यों कि मगधदेशमें उत्पन्न भी मगधदेश, सूरपेन तथा विहारके पास-पासका भाग रहा
न होने के कारण भगवानकी मातृभाषा मागधी तो थी ही, है, इसलिये यह समुचित ही था कि वहांकी जनताकी इसके साथ ही साथ अपनी आवाज सभी भार बोलीमें ही भगवानका उपदेश हो। महावीरकी तरह बद्धने तक पहुचानी थी। श्रन' उसमें उस समयकी अन्य सभी भी अपने उपदेश मागधी भाषामे ही दिये हैं। इसी
भापायीके शब्दोका थाना भी लाजिमी था। इसी लिए तो
श्राज महामा गान्धीकी हिन्दी अर्धगुजगती होकर भी मागधी भापाको पाली भाषा कहते हैं । विपिटिकोंकी भाषा तो मागधी ही है। पाली संज्ञ। तो मागधी भाषाके
हिन्दुस्तानीके रूपमे विकसित हो रही है। त्रिपिटिक वाक्योकी है।
युगप्रधान श्राचार्य समन्तभद्र श्रादिने भगवानकी
चाणीको मर्वभाषास्वभाव' कहा है। यतिवृषभ आचार्य बुद्धने स्पष्ट कहा है कि “अनुजानामि भिक्खवे बिलोकप्रज्ञप्तिमें लिखते हैं२ कि भगवानकी दिव्यवाणी सकाय-निरुत्तिया बुद्धवचनं परियापुणितु"-भिक्षश्रो ! १८ महाभाषा और ७०० लघुभापायोंये समृद्ध थी। अनुमति देता है अपनी भाषामें बुद्धवचन सीखनेकी" भाषाके इन विशेषणांमे उसका रवरूप साफ साफ ज्ञात (चुल्लवम्ग)। महावीर और बुद्धकी इस भाषा क्रातिको हो जाता है कि वह भाषामे किमी खास भाषाके शब्दोंमे रूढिवादी विप्रवर्गने अपने लिये चुनौती समझा। इसीका कैद नहीं थी उसमे तो संसारकी सभी महाभापानी और यह अवश्यम्भावी परिणाम हुआ कि प्राकृत भाषाको नीची लघभाषाओंके प्रचलित शब्द विद्यमान थे तभी तो उनका की भाषा कहा गया, नास्तिकों की बोलीके नामसे पुकारा उपदेश सब तक पहुंचता था। श्रा० हेमचन्द तो स्पष्ट ही गया। उत्तरकालमें कालिदास याटिके नाटकोमे स्त्री और उसे सर्वभाषापरिणत' कहते हैं। मेरे विचारमे भगवान्की शूद्वपात्रों द्वारा प्राकृत भाषाका ही प्रयोग कराया गया है। वाणीका 'निरक्षरी' विशेषण भी 'सर्वभापात्मक' अर्थम
भ. महावीर विश्वकी विभूति थे। वे अपने और लगाया जा सकता है। 'निशेषारिस अक्षगणि यस्यां या' भव्य श्रोताओं के बीच भाषाकी कल्पित दीवालको कैसे रख - सकते थे। उनकी दयामय श्रामा तो प्राणिमात्रके दुःख
१"तव वागभृतं श्रीमत्सर्वभाषास्वभावकम् ।”-बृहत्स्वयम्भूम्तोत्र
श्लो०६६ । न्यायकुमुदचन्द्र पृ०२ टि०३। दूर करने के लिये उनसे तादात्म्य करना चाहती थी, वह .
२'अटरममहाभामा खुल्ल यभासा य सत्तमयसंग्वा । भाषाके इस कल्पित, अहङ्कारपोषक बन्धनको कैसे बरदास्त
अकबरअणखरप्पयमण्णी जीवाग मयलभाषायो । कर सकती थी। यही कारण है कि इस अहिंसक विभूतिने लोकापवादकी जरा भी परवाह नहीं करके प्राणिमात्रके
एदासि भामागं तालुवदंतोटकण्ठवावार ।
परिहरिय एक्ककालं भव्वजग्गाणंदकरभासी ॥" हितके लिए, उन तक अपना पवित्र सन्देश पहुंचाने के
त्रिलोकप्रशनि गा०६१-६२ *देखो भिक्षु जगदीश काश्या एम० ए० लिखित "पालि- ३"सर्वभाषापरिणता जैनी वाचमुपास्महे ।" महाव्याकरण" की प्रस्तावना ।
-काव्यानुशासन श्लोक १ ।