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किरण ५ ]
श्रमण-संस्कृति और भाषा
ऐमी व्युत्पत्तिमे निशेष अर्थात् सभी हैं अक्षर जिसमें एमा इस तरह युगप्रवर्तक भगवान् महावीरने लोकापवाद अर्थ ध्वनित होता है जो संभवत: उसकी सर्वभाषामकता की उपेक्षा करके अपने दिव्य सन्देशोको सबकी बोली का सूचन करता है। श्रस्तु।।
अर्धमागधीमें ही कहा । भाषा तो भावोंकी न्यञ्जनाका __ धन्य अनेक श्राचार्योंने भगवानकी वाणीके विषयमे साधन है। उनकी इस भाषाक्रान्तिने जगत्के प्राणियोंको बडी श्रद्धासे अनेक प्रकारका विवेचन किया है। इस समय अपनी ही बोलीमे धर्म समझकर उन्हें अपूर्व शान्ति दी, छोटे लेखमे उनके विवंचनका अवसर नहीं है। यहाँ तो इससे भाषाके नाम पर होने वाली धर्मकी दुकानदारी बन्द वह परिस्थति तथा उस प्रेरणाके बीजका दिग्दर्शन कराना हुई । यद्यपि हमारा दुर्भाग्य है कि भगवानकी उस अर्धही इष्ट है जिस प्रेरणाने उस समयकी लब्धप्रतिष्ट भाषाके मागधी भापाके पुनीत उपदेश अाज ठीक उम रूपमें उपखिलाफ जबर्दस्त बगावत कराई और भगवानका उपदेश लब्ध नहीं हैं । पर यह भी कम सौभाग्यकी बात नही है सर्वजनमुखाय स की बोली में दिलाया।
कि उन उपदेशे। मूलधारा उत्तरकालीन प्राचार्यों के इस तरह जब महावार और वुद्ध जैसे युगान्तरकारी
असीम पुरुषार्थ से हम उपलब्ध है और वह भगवान्के महापु पो द्वारा अर्धमागधी भापाको तत्त्वज्ञोंकी भाषा होने
उपदेशोक मूलतत्वकी यथार्थ झलक हमें करा ही देती है। का सम्मान मिला और विश्वर्गक द्वारा प्राकृत भाषाका
यह भाषाक्रान्ति हम प्रेरणा देती है कि हम अाजकल की तिरस्कार भी धीरे-धीरे कम हुआ तव प्राकृतभाषाकी
लोभापामे भगवान्के अहिंसामय उपदेशोंको सर्वजनउत्पत्ति के विषयमे कहा जाने लगा कि प्राकृत भाषा तो
हिनार्थ जनसाधारण तक पहुंचाव।। संस्कृतसे ही उत्पन्न हुई है।
यही कारण है कि मध्यकालीन श्राचार्याने उस समय
की लोकभापाम ग्रन्थ बनानेकी पद्धति चालू रखी। अप. नाट्यशास्त्र, प्राकृतसम्ब, प्राकृतचन्द्रिका, षड़भाषा
भ्रंश भाषा जो निर्विादरूपमे अाजकी हिन्दीकी जननी चन्द्रिका, प्राकृतसग्रह, त्रिविक्रमकृत प्राकृत व्याकरण श्रादि
है, जनाचार्योंके साहित्यभंडारसे गौरवान्वित हुई है। अपसभी प्राकृत व्याकरणाम "प्रकृतिः संस्कृतं तत श्रागत
भ्रंश कालके बाद जब गुजराती, मराठी, कनदी, तामिन प्राकृतम् प्रकृति अर्थात संस्कृतसे उत्पन्न हुई भाषा प्राकृत"
आदि प्रान्तीय भाषाएँ अपने-अपने रूपमे विकसित हुई। यही न्युत्पत्ति की गई है । हमचन्द्राचार्य भी इसी प्रवाहमे
तब तत्तत्प्रान्तवामी श्राचार्योने गुजराती, कनही श्रादि बहे हैं। पर इसका स्पष्ट विरोध प्रभाचन्द्राचार्यने न्याय
प्रान्तीय भाषाओं में भी अनेकों महत्त्वपूर्ण ग्रन्थोंकी रचनाएँ कुमुदचन्द्र में दिया है। । व लिखते हैं कि प्रकृतिरेव
की हैं । कनड़ी और तामिलका उच्चकोटिके साहित्यकोष प्राकृतम्' अर्थात् जनसाधारण की बोलचालकी स्वाभाविक
जैनाचार्योकी पर्याप्त पूजी है। बनारसीदाम, भगवतीदास, भाषा ही प्राकृतभाषा है। यही जब व्याकरण के नियमों
भूधरदास आदि कवियोंने अपनी रचनाश्रीसे हिन्दीभाषा द्वारा संस्कारको प्राप्त होती है तब मस्कन कहलाती है।
को समृद्ध करने में पूरा पूरा भाग लिया है। अस्तु । प्राक्त और संस्कृत शब्द ही प्राकतकी स्वाभाविकता
श्रमण-संस्कृतिकी बुनियाद अहिंसाके ऊपर होनेके अनादिता तथा संस्कृतकी श्रादिमत्ताको द्योतन करते हैं।
कारण उमकी उदार तथा संग्राहकदृष्टिमे भाषाकी सङ्कीर्णता मेघसे बरसे हुए जलकी तरह प्राकृत भाषा स्वाभाविक
कैसे टिक सकती थी। बह भाषाको भाव व्यक्त करनेका तथा एकरूप होती है । वह सभी बाल-बच्चों नियों
माधन मानती है साध्य नही। माधन तो सुविधानुसार मादिकी अपनी बोली है। रुद्रटकृत काव्याल कारके टीका
द्रव्यक्षेत्रकाल आदि की परिस्थितिके अनुसार अनुभवसे कार श्री नमिसाधुने भी "प्राक्कृतं प्राकृतम्' अर्थात सबसे
बदले जाते हैं तथा कालकी अव्याहन गतिमे जमाने के पहिले प्रमुक होने वाली भाषा श्रादि लिखकर प्राकृतको
अनुसार स्वयं बदलते रहते हैं। बिना इनके बदले लक्ष्य अनादि तथा स्वाभाविक सिद्ध किया है।
की सिद्धि होना असम्भव नहीं तो कठिन अवश्य ही है। * न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भा० पृ० ७५६ से।
यदि हम इसी अहिंसक तथा सर्वसंग्राहक उदारदृष्टिसे