________________
किरण १-२]
भगवान महावीर पर उनका अहिंसा सिद्धान्त
। यों तो जैन धर्म अहिंसाप्रधान है ही भगवान् महावीर हो। जिस प्राधरण या विचारमें अहिंसा नहीं सधती है के पहिले २३ तीर्थकरोने भी हिसाका विश्वको संदेश वह श्राचार सदाचार और विचार सद्विचार नहीं है। दिया। किन्तु भगवान् महावीर के समयमें याज्ञिक हिंसाका भगवान महावीरका संदेश यही था कि जीवनका लक्ष्य अधिक जोर था। वैदिक संस्कृति याज्ञिक हिसायो विधेय शान्ति है और शान्तिका उपाय अहिंसा है, अत: जीवनके बताकर उसका पोषण वैदिको हिसा हिंसा न भवति' लय और उसके साधनको अपनी प्रत्येक दशामें याद कर रही थी। इस लिये भगवान् महावीरको उसके नुकायले रकम्वो। श्राज महारमा गांधी भी भगवान महावीरकी में अहिंसाका सफल प्रचार करना पडा। मह. मा बुद्धने भी अहिंसाके ही पदानुगामी हैं। इसी लिये वे भान हो रहे अहिंसाका प्रचार किया था और याजिक हिंसाका विरोध अनावश्यक एवं अनुचित स्वार्थमय युद्धोंका भी विरोध किया था। किन्तु उन्होंने अपने शिष्योंकी कठिनाइयोको कर रहे हैं। महसूस कर माधु-अहिमाके क्षेत्रमें काफी -ट दे दी थी। जो लोग यह कहते हैं कि 'विषस्य विषमौषधम्"म मभक्षण तक कालेने के लिये उन्होंने अपने शिष्योको विरकी दवा विष ही है-उनका यह कहना सार्वत्रिक और प्राज्ञा दे दी थी। परिणाम यह निकला कि उस समय सार्वकालिक नही है। कुछ समय के लिये भले ही हिंसाजन्य महा'मा बुद्ध के अहिंसाप्रचारकी अपेक्षा भगवान् महावीरका परिणाम श्ररछे निकल पावें। पिछले महायुद्ध के बाद अल्पअहिंसापचार ठोस प्रभावक एवं व्यापक हुना। उन्होने कालिक शान्तिका ही दुनियाने अनुभव किया है। जानकार अहिंसाकी अविछिन्न एक धारा होते हुये भी साधु-अहिंसा लोका तो यही कहना है कि पिछला महायुद्ध इस युन्द्र
और गृहस्थ-अहिंसाके भेदसे उसके पालकोको उपदेश का सूत्रपात था और वह युद्ध श्रागेके युद्धका सूत्रपात दिया. साधु-अहिसाके पालक साधुओं को उनकी कठिनाइयों होगा। क्रोधर्म क्रोध बटता ही है पर क्षमाम्मे उसकी ठीक पर विजय प्राप्त करने के लिये ही उन्हें श्रादेशित किया और और सच्ची शाते होती है। निष्कर्ष यह निकला कि दुनिया विविध पीपहों-कठिनाइयोंगे सहन करनेका मार्ग में जितनी अधिक अहिसाकी प्रतिष्ठा होगी उतनी ही अधिक मुझाय।। सर्वमंगविरत साधुके लिये वोई अपवाद ही शांति होगी। नहीं हो सकता। जो श्रापड़े उने समता भावी के साथ सहन व्यावहारिक, सामाजिक, राजनैतिक . श्राध्यामिक करना ही उसका एकमात्र कर्तव्य है। भगवान् महावीरने सभी जीवनाम और सभी क्षेत्रों में हिसाका उपयोग और साधु अहिंसाके बारे में साफ कहा था कि उनके लिये मोक्ष प्रयोग करना अव्यवहार्य नहीं है। यह तो उपयोक्ता और प्रात करने को साधुपद अन्तिम सोरान है उप अधिकाधिक प्रयोकाके मनोभावोंपर निर्भर है । भगवान् महावीरने निविकार एवं निलित होना चाहिये तथा सम्पूर्ण तरहकी अहिसाके पालनको रसके पालकके मनोभावापर निर्भर कठिनायोको झेलनेकी पूर्ण सामर्थ्यसे युक्त । अतः साधु अहि. बताया है। यही कारण है कि जैन दृष्टिकी अहिंसाका पालन साके पालने में कोई अपवाद यान्ट नहीं है। इस अहिंसा सर्वमंगरत गृहस्थ और सर्वसंगविग्त साधु दोनों कर सकते की पूर्णताके लिये ही सग्य, श्रचोर्य, ब्रह्मचर्य और परिग्रह- हैं और दोनों ही उसके प्रशस्य परिणामोको प्राप्त कर सकते त्याग महावनों-अपवादहीन वतीको दिगम्बर साधु धाचरण हैं। श्रतएव अहिंसाकी एक अविच्छिन्न धारा होते हुये भी करते हैं।
पालकों के मनोभावोंकी अपेक्षा उसके अांशिक भेद हो जाते हां, गृहस्थों के लिये दिया गया उनका अहिंसाका हैं। हिंसाके न्यागमेंसे अहिंसा प्रकट होती है। गृहस्थ जब उपदेश सब दशायों और सब परिस्थितियों में पाला हिंसाको छोड़ने के लिये यनशील होता है तब वह समस्त जा सकता है। अहिंसक पाचरण करते हुये हमेशा गृहस्थ हिंसाको चार भागोंमें बांट लेता है:-१ साकल्पिकीकी भी रष्टि अहिंसाकी भोर ही रहनी चाहिये। अनीति- इरादापूर्वक होने वाली हिसा। २-प्रारंभी-रोटी बनाना अन्यायकी उपशान्ति न्याय-नीति के द्वारा ही करें । जैनधर्म धादिमे उपजने वाली हिंसा। ३-उद्योगी कृषि प्रादिसे का ऐसा कोई प्राचार-विचार नहीं है जो अहिंसामूलक न उत्पन्न होनेवाली हिंसा। ४-विरोधी-विरोधसे अर्थात्