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अनेकान्त
[ वर्ष
नियाज प्रात्मरक्षाके लिये दुश्मनके निमित्ससे होने वाली त्याग दोनों धियों में है। अब रही अन्य तीन प्रकारको हिंसा । इन चार तरहकी हिंसामा पहिले प्रकारकी रथात् हिंसायं. सो दव्यत: प्रारम्भी, उद्योगी हिंसाका निषेध इरादा पूर्वक की जाने वाली हिंसाका तो गृहस्थ द्रव्य और महात्मागांधीजी गृहस्थके लिए कभी नहीं बताते हैं। प्रारंभ भाव दोनों तरहसे त्याग करता है, अन्य हिंसाका त्याग और उद्योग नो गृहस्थ के लिए अनिवार्य और श्रावश्यक भाषसे करता है. क्यों कि द्रव्यतः अन्य हिसाओंको करते बताते हैं स्वयं महात्मागांधी अपने हाथमे रसोई बनाना हुये भी उसकी भावदृष्टि हिंसा करनेकी और नही रहती है सूत कातना प्रादिको पसंद करते हैं। एक बाहेनके शील बल्कि आत्मपोषण और प्रारमरक्षणकी ओर रहती है। रक्षाके प्रश्नपरं गांधीजी कहते हैं कि जिस किसी भी प्रकार यही कारण है कि वह अन्य तीन प्रकारको हिंसानोंको से बने-दांतासे नाखूनमे अपनी रक्षा करनी चाहिये भले ही करता हुश्रा भी पापपङ्कसे कम लिप्त होता है। सम्राट भरत विरोधीका घात हो जाय । वर्तमान युद्ध में उनकी सम्मति छह खण्ड पृथिवीके स्वामी होते हुए भी उसको स्यागते ही न होनेका प्राशय यह है कि ये युद्ध श्रावश्यक और अनुअन्स मुहूर्त में केवलज्ञानी बन गये थे। शर्त यही है कि चित स्वार्थमय होरहे हैं निव्याज श्रामरक्षा का भाव नहीं अहिंसाके पालक गृहस्थकी उपक्त भावष्टि होना चाहिये। हैं । ऐसे युद्धसि तो धागे के लिये उत्तेजना ही मिलेगी। ___लोग कहते हैं कि महाप्मा गांधी भगवान महावीरसे इस तरह हम देखते हैं कि गांधीजीकी दृष्टि भगवान् हिंसाके त्याग-अहिंसामे आगे बढ़ गये हैं। भगवान् महा- महावीरकी दृष्टिकी ही अनुगामी है। यद्यपि गांधीजीकी वीरने तो गृहस्थको संकल्पी हिंसाका ही त्याग बताया था अहिमादृष्टि मानवों तक ही सीमित है। जबकि भगवान पर महामा गांधी सभी हिसाओंका त्याग बताते हैं और महावीरकी दृष्टि समस्त प्राणियों में समन्याप्त है। यही सब क्षेत्रों में पूर्ण अहिंसाका प्रयोग कर रहे हैं। हम समझते उनका अहिंसा-सिद्धान्त है। हमारा कर्शव्य है कि उनके हैं कि अगर भगवान् महावीरकी दृष्टि के साथ गांधीजीकी इस विश्वोपकारक सिद्धान्त को दुनिया में फैला दें और दृष्टिका सूक्ष्म पर्यालोचन किया होता तो यह भेद नज़र सुख-शांतिका साम्राज्य कायम कर दें। तभी सच्ची जयन्ती नहीं पाता । यह तो निर्विवाद है कि संकल्पी हिंसाका कहलायेगी। इतिशम् ।
पन्थीसे
पन्थी ! पथको भूल न जाना ! चलते चलते यदि थक जाओ,
श्रामपाम बन-बगिया पात्रो, मायाके मोहक मुरमुटम, कही बैठ कर टूल न जाना :
पन्थी ! पथको भूल न जाना! निचर जगकी रीत निगली,
स्वार्थभरोंकी प्रोत निराली, मीत समझ कर फूल न जाना फूल ! स्वयं बन धूल न जाना!
पन्थी ! पथको भूल न जाना ! दूर देश, बालक मन तेरा,
कहीं अंधेरा कहीं उजेरा, कहीं निराशाके झोंकोम, जीवनको मत शूल बनाना !
पन्थी ! पथको भूल न जाना !
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(ले० कुसुम जैन)