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तामिल भाषाका जैनसाहित्य
[ मूललेखक - प्र० ए० चक्रवर्ती MA 1 ES.]
( अनुवादक - पं० सुमेरचंद जैन 'दिवाकर' न्यायतीथ, शाली, B. A. L. L. B )
( चतुर्थ वर्षकी गत १२ वीं किरणसे धागे)
मेरुमंदिरपुरागम् - यह मेरु मंदिर पुराणं तमिल भाषाका एक महान् ग्रन्थ है, यद्यपि इसकी काव्योंकी सूची में गणना नहीं की गई है। यह साहित्यिक शैलीकी उत्तमताकी दृष्टि तामिल भाषा के श्रेष्टतम काव्यसाहित्य के मध्श है । यह मेरु और मंदिर सम्बन्धी पौराणिक कथा के श्राधारपर बनाया गया है। इस क्थाका वर्णन महापुराण में श्राया है । और इसे विमल तीर्थकरके समयकी घटना बतलाया है । इस मेरुमंदिरपुराण के रचयिता वे ही वामन मुनि हैंजो कि नीलकेशीके टीकाकार हैं। वामन मुनि बुक्कराय के समय में १४ वी सदीके लगभग विद्यमान थे । इस ग्रन्थमे भी जैनधर्मके महत्वपूर्ण सिद्धान्तोंके प्रतिपादनके लिये इस कथाका अवलंबन लिया गया है।
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इस कथाका सम्बन्ध विदेह क्षेत्रकी गंधमालिनी नगरी की राजधानी बीतशोका पुरीके साथ है। इस देशके शासक नरेशका नाम वैजयन्त था, जिसकी रानी सर्वश्री थी । इस महारानी से उसके संजयंत और जयंत नामके दो पुत्र उत्पन्न हुए थे। राज्यका उत्तराधिकारी संजयन्त नामके ज्येष्ठ पुत्रका विवाह एक राजकुमारीसे हुआ था, जिससे एक पुत्र हुधा था जो अपने पितामहके नामानुसार वैजयन्त कहलाता था । वृद्ध महाराजाने जिनके सदृश नाम वाला पौत्र था, यह उचित समा कि अपने पुत्रके लिये राज्यका परित्याग करदे, ताकि तापसाश्रममें प्रवेश करके योगीका जीवन बितावें । किन्तु उनके दोनों पुत्रों ने राजकीय वैभवकी धोर तनिक भी इच्छा नहीं व्यक्त की, अतः उन्होंने राज्यका परियाग करके पिताका अनुकरण करमेकी श्रीकांता व्यक्त की। इस प्रकार पौत्र वैजयन्त को राज्याधीश बनाया, और तीनों पिता तथा पुत्रद्वयने मुनिपद अंगीकार किया और योगी का जीवन व्यतीत करने लगे । जब कि तीनों
तपश्चर्या कर रहे थे, तब पिता वैजयन्तने योग में सफलता प्राप्त करने के कारण शीघ्र ही कर्मों की क्षपणा करके सर्वज्ञता प्राप्त की । नियमानुसार इस जीवन्मुक्त प्रभुके चरणोंकी पूजा के लिये संपूर्ण देवता एकत्र हुए। उन देवताओंमें धरन्द्र नामका एक सुन्दर देव था. जो अपने संपूर्ण दिव्य वैभवसे युक्त था । तपश्चर्या में रत छोटे भाई जयन्तमे इस सुन्दरदेवको देखकर धागामी भवमें उसके समान बननेका निदान किया। अपनी श्राकांक्षा के कारण तथा अपूर्ण योगके परिणामस्वरूप वह धरणेन्द्र हो गया । अपने पिताके मुक्त होनेपर भी ज्येष्ठ भाई संजयंत दृढ़तापूर्वक तपस्या करता रहा । जब वह अपनी तपस्या में निमग्न था तब श्राकाशमार्गसे जाते हुये एक विद्याधरकी दृष्टि उसपर पड़ी। उसने यह भी देखा कि मुनिराजको लांघकर उसका विमान नहीं जा सकता था। इससे वह कुछ हो गया। उसने योगी संजयंत भट्टारकको उठा लिया और अपने देशकी ओर ले चला । अपने देशके बाहर उनको छोड़कर उसने अपने देशके विद्याधरोसे कहा कि संजयंत हमारा शत्र है अतः उसके साथ क्रूरतापूर्ण व्यवहार करना चाहिए । दुष्ट विद्याधर विद्युदन्तके द्वारा भड़काए जाने के कारण अज्ञानतावश इन विद्याधरोंने उन मुनिराजके साथ दुव्यवहार किया । कर व्यवहारके होते हुये भी मुनिराज ध्यान से विचलित नहीं हुये । शत्रुओं के द्वारा दुःख दिये जानेपर भी महान श्राध्यामिक एकाग्रता तथा शान्तिके कारण मुनिराज ने समाधिलाभ किया । इस श्रामीय विजयके कारण उनकी धराधना तथा पूजाके लिये देवताओंका समुदाय उनके पास चाया। इन देवोंके मध्यमें उनके भाई नवीन धरणेन्द्र भी विद्यमान थे। नवीन देव धरणेन्द्र ने देखा कि मेरे जेष्ट भाई के प्रति उन विद्याधर लोगोंने क्रूरतापूर्ण व्यवहार किया है ।