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________________ ६० अनेकान्ल [ वर्ष ५ को अभी तक वहां ठहरे हुये अपने विरोधी संयंत भट्टारक उसके मंत्रीका नाम था श्रीभूति, जो समय-संभाषण तथा की श्राराधना तथा पूजा के लिये एवदितदेवता ईमानदारीक कारण सत्यबोध' के नाम से कहा जाता था। आचार्य दृश्यको देखकर चक्ति थे। इससे उसे बो उस समय अन्यदेशीय भद्रमित्र नामका एक व्यापारी था। श्रागया । इस शरारत के प्रति फलस्वरूप उस देवताका विचार वह अपने जहाज मे माल भरकर रत्नपुर गया और थाकस करके मुझमे फेंक दिया जवाहरात तथा नोंके रूपमे बहुत द्वय श्रर्जन करके जाय, किन्तु सब विद्याथीने स्पष्टतया भूल स्वीकारकर दया वापिस लौटा। लौटते हुये वह सिहपुर ठहर गया । नगरका की याचना की, क्योंके उन्होंने अपने नेता विद्युत के सौन्द्र तथा समृद्धि देखकर एवं राजा था राममंदि राजमंत्रियों के दुष्टता पूर्ण प्रोसाहन के कारण ही वह काम किया था न कि अस्वभावी बनकर उसने सहपुरमे ही रहनेश 'अपनी स्वेच्छा । श्रतः धरणेन्द्र ने सबको क्षमा प्रदान की । निश्चय किया। इस लिये वह अपने देशको जाकर सब परन्तु वह उस दुष्ट विद्युत दिनों वहां लाना चाहता था। इसमें उसने सोचा विद्युद्दन्त दण्ड नहीं जाने देना चाहता था। इससे वह इस एक ही दुष्टको कि मैं समुद्रके व्यापारसं प्राप्त संपूर्ण द्रव्यको सुरक्षित स्थान बाकर सदमें दुबाने की इच्छा गया। उसी समय पर में कही खट्टे । उसका ध्यान मंत्री सत्यघोष के सिवाय वहाँ एकत्र हुए देव आदिदेव नामके एक देवने श्रन्यत्र नही गया । वह उसके पास गया और अपना मंतव्य ऐसा करनेसे धरणेन्द्रको मना किया इसपर धरन्द्र ने कहा प्रगट किया कि मै इस सुन्दर सिहपुर नगर में रहना चाहता मैं अपने भाई के प्रति इस दुष्ट द्वारा किये गये क्रूर व्यवहार मेरी प्रार्थना है कि बहुमुल्य मोठी को कैसे सहन कर सकता हूँ और इस क्षम्य अपराधको अपने पास इसे सोनेर देखने हुये कैसे तुम्हारी सलाह मान सकता हूँ ? किया। रतो वाला एक सड़क मंत्रीक पास रख गया और दयाने उत्तर में कहा- इस आाध्यमिक क्षेत्र में वह भद्रमित्र अपने मित्र लेने के लिये बुराईका बदला बुराई नहीं होना चाहिये । आप अपने अपने देशको गया । इतनेमे सवती मत्री श्रीभूतिने जब भाई के प्रति अत्यधिक बंध व्यक्त करते हैं किन्तु यदि वैश्यशिम द्वारा जमा कराए गए उनको देखा तथ तुमको पूर्व भवावलियों के सम्बन्धका पता हो तो तुम्हे जीवन उसके चित्तमे लोभ समा गया। उसने सोचा कि सबको परम्पराके मध्य होने वाले अनेक सम्बन्धी सूची एक हमकर जाऊं । श्रतः जब वह व्यापारी सिंहपुर लौटा, तब सम्बन्धको महत्व देनेकी अज्ञानताका पता चले। दूसरी बात उसने अपने लिये एक प्रासाद खरीदा। अपने श्रामीय ग्रह है कि श्रागामी भवों के कारणभून राग और द्वेषभाव हैं। वह छोड़कर वह रनको दापिस लेने के लिये मंत्री के पास पहुंचा, किन्तु भद्रभित्रने सयवोपमें एक दम परिवर्तन पाया । सत्यघोषने उस वशिक के साथ श्रपरिचित व्यक्ति जैसा व्यवहार किया और रनों के संदूक के बारे में पूर्णतया श्रजान कारी व्यक्त की । ६ बुरा परिणाम निकलता है और प्रेमने मधुर फल प्राप्त होता है । श्रतः मेरी राय तो यही है कि तुम इस दुष्ट विद्याधरविधी बाबत अपनेको नि न को योगीराज संजयंतने भी जिनको इस दुष्ट विद्याधर कृयोंका फल भोगना पड़ा, इसको क्षमा प्रदान की है. कारण इसने अज्ञानतावश ही कार्य किया था। इस लिये इस दुष्ट विद्याधरको देश करने की भावना तुम क्यों अपने आपको कमले बांधते हो ! अपने मित्र आदित्यापदेव इस उपदेश को सुनकर भरने खुलासा रूपमें पूर्व भय पूछे। धरणेन्द्रके कल्याणार्थ श्रादि ययदेवने इस प्रकार कथाको भारम्भ किया कि सिंहपुर में सिंहमेन नामके राजाका राज्य था। रामदत्ता देवी नामकी उनकी महारानी थी। इससे बेचारे व्यापारी का दिमाग चक्कर खा गया श्रीर वह न्याय के बारे में चिल्लाता हुआ लोगों से सहायता की प्रार्थना करने लगा । सयघोष मंत्री के विरुद्ध बालपर कोई भी नागरिक विश्वास नहीं करता था, कारया वह अपनी सचाई और ईमानदारी के लिये विख्यात था। लोगोंने मनमें समझा कि यह बाहर का व्यापारी पागल है और झूठे तौर पर मंत्रो को धरोहर के अपहरण रूप में करता है । किन्तु अपनी चिल्लाहट में यह व्यापारी
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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