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किरण १-२]
तामिल भाषाका जैनसाहित्य
सदा एक सी ही बात कहता था जो बात पागल के साथ इस विरोध के कारण ये दोनों श्रागामी भवों में परस्सर सम्बंधित नही की जा सकती। अत: इस व्यापारी के रोहन शत्र रूपमें उत्पन्न हुए। यह दुष्ट विद्याधर मायवोष नाम की ओर महारानी आकर्षित हुई। उसने पता चलवाया का मंत्री था, जो अपनी बेईमानीके कारण निंदित हुआ था, और उसे जानकर अचरज हुआ कि मंत्री यथार्थ में धूर्त था। और जिने तुम अभी दंडित करना चाहते हो। अनेकबार वहां इस बात का कोई साही तो था नहीं, जिसके समन जन्म-मरण करके राजा सिंहसेन संजयंत के रूप में उत्पन्न हुआ। व्यापारीने अपना सहक जमा कराया हो, किन्तु महारानी अोर उसने हाल ही मुक्ति प्राप्त की है हम सब यहाँ रामदत्ताको उस संदूक के बारेमें निश्चय हो चुका था, अत: संजयंतकी पूजाके लिए एकत्रित हुए हैं, पूर्वभवमें सिंहसेन उसने उस वणिककी तरफ महाराजये मध्यस्थ बनने का। महाराज थे। मैं महारानी रामदत्ताई और अब मैं अनुरोध किया। गजाने जब इस ओर ध्यान नहीं दिया, श्रादिग्यापदेव उत्पन्न हुई है और तुम संजयंतके छोटे भाई तब महारानीने इस बातकी अनुज्ञा चाही कि वह स्वयं इस हो। तुमने देवपदकी कामना की, इससे तुम धरणेन्द्र हुए। मामलेका निर्णय करना चाहती है। राजाने इथे स्वीकार अतः आपके लिए यह उचित है, कि आप इस घृणाका किया।
परिम्याग करके धर्म-मार्गका अनुगमन करें। अपने देवबंधुका रानी रामदत्ताने स यदोष मंत्रीको जुआ खेलनेको उपदेश धरणेन्द्रने ग्रहण किया, घृणा-भावको छोड़ा और बुलाया। पहली ही बार रानीने मंत्रीका यज्ञोपवीत तथा धर्म के बारेमें ध्यान करने लगा। विद्यन्दन्त नामक दुष्ट उसकी मुद्रिका भी जीत ली। मंत्री के इन दो मुख्य चिह्नोंको विद्याधाने जब यह कथा सुनी, तो वह भी अपने अतीतपर जीतन के उपरान्त उसने चुपके से अपनी दासीके हाथ खनाची लजित हुश्रा, और उसने भागे पवित्र जीवन बितानेका के पास उनसे भेजा। उसने दासीको मिग्वा दिया था कि निश्चय किया। वह खजाची दोनों चीजें बताने और राज्यकोरमें मंत्री श्रादिन्यापदेव तथा धरणेन्द्र, जो पहले देवी रामदत्ता द्वागचुपके रकबे गये मंत्री र नोके संदकको ले अावे । जब तथा उसके पुत्र हुए थे, देवपर्यायको समाप्तकर उत्तर मदुरा वह दासी उस संदूकको ले पाई तो राजामी श्राग्वें खुलीं। के शासक अनंनवीर्य नरेशके यहां पुत्र हुए। इस राजाकी उमे मत्री के अपराधका पता चला। अब तो मंत्री भी मेहमालिनी और अनंतमती नामकी दो रानियां थीं। मेरुज्ञात हया कि उसकी कलई महागनी के समक्ष खुल चुकी है मालिनीके यहाँ श्रादियापदेव उपन्न हुश्रा और उसका नाम फिर भी राजाने व्यापारीकी स यताकी परीक्षा करना चाही। मेरु हुश्रा, दुसरी रानी अमृतमतीके यहाँ धरणेन्द्र उत्पन्न उसने इस राशि को राज्यकोषकी अनेक राशियो में रखकर हुआ और उसका नाम मंदर रक्खा गया। उसी समय इन सबको ले जानेको व्यापारी से कहा। व्यापीरीने अपने उत्तर मदुराके उद्यान में धर्मोपदेश देनेके लिए विमल तीयरनोंको छोडकर दुपाको तनिक भी नहीं सर्श किया । उस कर पधारे । मेरु और मंदर नामक युवराज अपने गजराज संदकमें भी कुछ अन्य रन शामिल कर दिए थे। व्यापारीने पर प्रारुढ़ हो तीर्थकर भगवानकी पूजा करने तथा उपदेश अपने ही ग्न लिये और दूसरों को छोड दिया। व्यापारीके सुननेको गए। धर्मोपदेश सुनकर दोनों युवरान उनके इस व्यवहारये राजा तथा गज-सभासद-लोग प्रभावित हुए। शिष्य हो गये-भगवानके मुख्य गणधर बन गए । उन्हेंोंने उन्होंने इस व्यापारीकी सचाईकी प्रशंसा तथा मंत्री के जीवनभर धर्मका उपदेश दे योगाराधन कर निर्वाणपद लोभकी निन्दा की।
प्राप्त किया। ___ राजाने मंत्रीको पृथक किया और अपमानित करके इम महाकाव्यको मेरु और मंदर युवराजोंके नामपर गज्यने निमित कर दिया । वह मंत्री राजा तथा रानीके 'मेरुमंदरपुगणम्' कहते हैं । इसमें ३० अध्याय तथा प्रति द्वेष भाव रखना हुअा बाहर गया और मरकर राज्यकोष १४०५ पद्य हैं । लगभग १० वर्ष पूर्व इस लेग्वकने भूमिका में सर्व हुमा । जब राजाने खजाने में पाँव रखा कि सपने उसे तथा टिप्पण सहित उसे प्रकाशित कराया था, और अभी काटकर उसके प्राण हरण किये।
भी वह पाठकोंको उपलब्ध हो सकता है।