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श्रनेकान्त
गये ।" और वह चुपचाप सुई डोरा लेकर बैठ गई । थींउनको तुमने नही देखा जिन्हें तुम्हारी पीठ फिरते ही उसने धोतीके छोरसे पोंछ
डाला !
उन नन्हे-नन्हे प्रलयंकारी तूफान छुपे हुए थे । हृदयमें ठायें मारती हुई उद्दाम तरंगों को वे क्षुद्र विभूतियां थीं । वेदना उस अमीम अथाह सागरका भयङ्कर गर्जन तुम्हें सुनाई नही पड़ा ?
[ वर्ष ५
तुम्हे तो तनिकमी भी श्राशङ्का न हुई होगी कि उन नन्ह - नन्हे अश्रुकणोंमे तुम्हारे सारे मान-मर्यादा र उच्चपदको रसातल तक बहा लेजानेकी शक्ति अन्तर्हित है ?
देखो ! अब भी अांखे खोल लो ! समय है ! नही तो ?.....
परिणामकी कल्पना मात्र से रोगटे खड़े होजाते हैं !!
भगवान महावीर और उनका हिंसा सिद्धान्त
( लेखक - श्री पं० दरवारीलाल जैन, कोठिया न्यायाचार्य )
जै
न धर्म के अन्तिम तीर्थंकर-धर्मप्रवर्तक भगवान् महावीरका जन्म पच्चीमसौ चालीस वर्ष पूर्व - वि० सं० ५४२ और ईसा सं० ५६८ वर्ष पहिले भारतवर्ष के विहार प्रान्तके कुण्डलपुर नगर में नृप सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणीके यहाँ चैत्र शुद्धा १३ सोमवारको हुआ था। नृप सिद्धार्थ उस समय के श्रग्रगण्य राजाओं में प्रमुख एवं गण्यमान नरेश थे । ये ज्ञातिवंश क्षत्रिय थे । श्रेणिक - बिम्बसार के साथ इनका साडू भाईंका सम्बन्ध था । नृप सिद्वार्थका राज्य शासन श्रहिंसाकी भित्ति पर स्थित होने के कारण पूर्णसमृद्ध और श्रादर्श माना जाता था । उनकी राजनीति 'सया शिवा सुन्दरा' थी । श्रतएव उनके राज्यमे कोई भी प्रजाजन दुःखी या असन्तुष्ट नही था । भगवान् महावीर अपने सुयोग्य पिताके सरक्षण में एक राजकुमारकी भाँति लालित और पालित किये गये। 'मोती के जवाहर' जैसे लोकपूत, लोकप्रख्यात, गुणाग्रणी, कर्मण्य और अहिंसा के पूर्ण प्रतिष्ठापक हुये। जो महापुरुष होनेवाले होते हैं वे जन्मने ही स्वभावतः परहितैकतान होते हैं और अनेक विशेषताओं से सम्पन्न होते हैं । भगवान् महावीर भी ऐसे ही थे । वे घरमें ३० वर्ष ही रहे। उन्होंने न शादी की और न राज्य किया । संसारकी क्षणिकता और जीवनकी
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अल्पता देखकर तथा श्रमकल्याण और पर कल्याणमे प्रेरित होकर संमारसे उदासीन होगये । और दि० जैन साधुकी दीक्षा लेकर कठोर तप तपने लगे । तीव्र श्रध्यवसाय और कठोर तपश्चर्या के प्रभाव से १२ वर्ष बाद उन्हें केवल ज्ञान - पूर्ण ज्ञान होगया । श्रब वे सर्वज्ञ और सर्वदर्शी कहे जाने लगे। इन्द्रों, देव, मनुष्यों, विद्याधरोंने भगवान्का केवलज्ञानो सव मनाया।
धर्मोपदेश के लिये एक विशाल सभा - समवशरणकं । रचना की गई। सबको उनका समान रूपसे धर्मका उपदेश प्राप्त हुआ। जगह २ भ्रमण करके अनेक जीवोंको सन्मार्ग पर लगाया । उनका उपदेश अहिंसा, स्याद्वाद, कर्मवाद, श्रमवाद श्रादि विषयोंपर हुआ करता था । उनके इस उपदेशको 'दिव्यध्वनि' के नामसे कहा जाता था। उनकी यह दिव्यध्वनि सुबह, दोपहर, शाम, अर्धरात्रि इन चार समयो में छह छह घड़ी तक विरा करती थी । इनका अनेक विद्याश्रमं निपुण महापंडित गौतम गोत्री ब्राह्मण कुलापन्न इन्द्रभूति प्रथम गणधर — मुख्य श्रोता था । उन्होंने भगवान्की वाणीको द्वादशाङ्ग श्रुतनिबद्ध किया था । यद्यपि भगवान्की वह द्वादशाङ्ग वाणी हमें आज पूर्णतः प्राप्त नहीं है तथापि अंश प्रत्यंश रूप में वह हमें प्राप्त है ।