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अनेकान्त
[वर्प५
उसके गौरवको गिरानेका वह प्रयत्न किया गया है जो लेख हलचल मची है. मानाऽपमानकी आशंकाने उन्हे धर दबाया का पूर्णत: उत्तर देकर नही किया जा सकता था। है, उनकी किसी प्यारी चीजको ठेस पहुँची है, उन्होने ___इसके सिवाय, लेखके शुरूमें जब मैंने यह पढ़ा कि मेरे लेखके उद्देश्यको कुछ गलत समझ लिया है और शास्त्रीजीने मेरे द्वारा प्रयुक्त हुए प्रमादजन्य तथा अनभिज्ञता इसलिये उन्हें यह सहन नहीं हो सका कि मेरे जैसा नवजैसे एक दो अप्रिय अथवा कटु शब्दों पर समभाव धारण शिक्षित अल्पवयस्क प्राणी, जो एक असे तक उनके साथ किया है और बदलेमें मेरे लिये शुभ भावनाओंके ही देने मित्रभावसे रह चुका है, कुछ अंशोंमे उनसे शिक्षा भी प्राप्त की बात कही है तो मुझे श्रा.की इस उदारता पर बडी कर चुका है और जो अभी अभी इतिहासत्तेत्रमं प्रविष्ट प्रसन्नता हुई: परन्तु लेखके अन्त में -एक श्राक्षेपके परिहार हुश्रा है उन जैसे लब्धप्रतिष्ट प्रोढ विद्वानोंके बिरोधमें कुछ में--जब मैंने यह देखा कि शास्त्रीजी अपने उस समभाव लिखनेका साहस करे। भले ही उगका वह लिम्बना को स्थिर नहीं रख सके हैं, प्रत्युत उन अनभिज्ञता तथा कितना ही कर्तव्यानुगंधको लिये हुए क्यों न हो, और वह प्रमाद दोषोंको मेरे ही योग्य बतलाकर मुझे दुगशीर्वाद स्वयं 'शबोरपि गुणा वाच्या दोषा वाच्या गुरोरपि' इस नक दे रहे हैं, तो मेरी वह प्रसन्नता अप्रसन्नताम बदल गई। नीनिका अनुसरण करने वाला भी क्यों न हो !! इसीसे ___ यापि मेरे द्वारा यथास्थल विकल्परूपमे प्रयुक्त हुए उन्होंने अपने उत्तरलेखका वैमा रुख अस्नियार किया है 'प्रमादजन्य' और 'अनभिज्ञता शब्द ऐसे नहीं थे जिनके कारण और उसके द्वारा मेरे लेखके महत्वको कम करके मेरे श्री.पं. महेन्द्रकुमारजीको नभित अथवा कुपित होनेकी कोई व्यक्तित्वको पाठकोंकी नजरोंमें गिरानेकी चेष्टा की है। इस बात होती, क्योकि बहुत कुछ सावधानी रस्त्रनेपर भी कभी विषयमे मैं अधिक कुछ भी न कहकर सिर्फ इतना ही कभी अपन-लोगोंये अनेक अंशोमें असाधानतारूप प्रमाद कहना चाहता हूं कि इस प्रकारका व्यवहार प्रौढ विद्वानी बन ही जाता है और अनेक विषयों तथा अंशोंमें अनभिज्ञता और खासकर इतिहासके विद्वानोंको शोभा नहीं देता--भले नो उस वक्त तक चलती ही रहेगी जब तक कि प्राप्माम ही मेरा यह कहना 'छोटा मुंह और बडी बान क्यों न सर्वज्ञताकी प्रादुर्भूति नहीं हो जाती। और इसलिये ऐसी समझा जाय । साथ ही यह भी निवेदन कर देना चाहता बातोंके सामने लाये जाने पर व्यर्थका क्षोभ तथा रोष कुछ यति मायनोगामेटी शामीजी नोभ अर्थ नहीं रखता--स्वासकर ऐसी हालतमे तो वह और भी हुआ हो तथा कष्ट पहुंचा हो तो मैं खुशीसे उन्हें वापिस निरर्थक होजाता है जबकि हम देग्य रहे हो कि हमने अर्थ
लिय लेता है, क्योंकि मेरा अभिप्राय किमीके चिनको के सममने पादिम मोटी भूलें की हैं और उनके कारण हमे दुग्खानेका नहीं था। अस्तु । अपनी भूलोंको स्वीकार करना पड़ा है तथा अपने हृदयमे मैंने अपने लेखम पं० रामप्रसादजी और प. जिनदाम कुछ पश्चात्ताप भी करना पड़ा है। प्रेमी स्थितिमे यह जीके लम्बाकी सामग्रीका कोई उपयोग किया या कि नही आशा नहीं की जाती कि कोई भी विचारक विद्वान् मात्र और मुझे उनके वे लेख उस समय तक देखनेको मिले भी ये शब्दोंके सामने आने पर क्षोभको धारण करे। फिर थे याकि नहीं. इन सब बातोका खुलासा मुख्तार साहबके भी लेखमें अपनाये गये उत्तरके स्त्र और उसके श्रादि- उस सम्पादकीय वक्तव्यमे भले प्रकार होजाता है जो उन्हीं अन्तक अंशों परसे यह साफ ध्वनित होता है कि शास्त्रीजी ने वस्तुस्थितिको स्पष्ट करनेके लिये अनेकान्तकी गत किरण को मेरे लेख पर कुछ क्षोभ जरूर हो पाया है, और इस (प० ३२६) में पं० महेन्द्रकुमारजीके लेम्ब पर प्रकाशिन लिये उसका कोई विशेष कारण भी जरूर होना चाहिये। किया है। इधर बाबू जयभगवानजी वकील पानीपतके-- कारणका पर्यालोचन करते हुए जहां तक मैं समझ सका हूँ-- जो मेरे लेख लिखनेके समय वीरग्वामन्दिरमे मौजूद थे-- मभव है मेरे समझनेमे कुछ भूल भी हो-मुझे गया मालम ता. २६ दिसम्बरके पत्रये यह मालम हो रहा है कि, परा है कि मेरे गहरे पर्यालोचन एवं गंभीर विवेचनको उन्होंने पं० महेन्द्रकुमारजीको कोई पत्र लिम्बा है, जिसमें लिये हुए युनियुक लेग्बके कारण शास्त्रीजीके मानसमे कुछ मुम्नार माहवके उन सम्पादकीय वक्ष्यका 'शब्दश