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किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
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समर्थन करते हुए उन्हें यह प्राश्वासन दिलाया है कि पचवार्तिकोंका उल्लेख, जिसके द्वारा 'मोक्षमार्गस्य मेतारम्' 'मेरा लेख किसीके स्वाभिमानको ठेस पहुँचाने के लिये नहीं इस मंगलश्लोकको मुनीन्द्र-उमात्वातिका मंगलाचरण लिखा गया था बल्कि उसका लक्ष्य उन भूल-भ्रान्तियोंको बताया गया है (पृ. २२४)। दूर करने का था जिनके आधार पर समन्तभद्र जैसे प्राचार्यों ३ अष्टसहस्रीके 'शास्त्रारंभेऽभिष्ठुतस्य' इत्यादि को पूज्यपादके बादका विद्वान बतलाया जाने लगा है, अन्तिम वाक्यका उल्लेख, जिसके द्वारा उक्त मंगलश्लोकको
और साथ ही उनसे यह प्रार्थना भी की है कि वे अपने तस्वार्थसूत्रका प्रादिम मंगलाचाण बताया गया है (पु.२२४)। चितपे मेरे लेख-सम्बन्धी गलत फहमियों को दूर कर देव।' ५ 'श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः' आदि प्राप्तपरीक्षाका ऐसी हालतमें मुझे इस विषय पर अधिक कुछ भी लिखने उल्लेख और 'मुनिपुङ्गवाः सूत्रकारादयः' ‘स गुप्तिसमितिकी जरूरत मालूम नहीं होती। मैं अपनी श्रोरसे मिर्फ धर्मानुप्रेक्षापरीषहजयचारित्रेभ्यो भवतीति सूत्रकारमतम्' इतना ही स्पष्ट कर देना चाहता हूं कि मुझे अपना लेख 'कायवाङ्मनःकर्मयोगः इति सूत्रकारवचनात्' इन वाक्यों लिखकर समाप्त कर देने तक पं० रामप्रसाजी और पं. का उल्लेख, जिनके आधार पर उक्त मंगलश्लोकको सुत्रकार जिनदासजीके उन लेखों मेंसे कोई भी लेख देखनेको नहीं उमास्वातिकृत माननेका विद्यानन्दका अभिप्राय बताया मिला और न पाश्रमके किसी विद्वानसे उनके विषयका गया है (प० २२४, २२५)। कोई परिचय ही प्राप्त हुआ है, और इसलिये मेरे लेख में ५ 'तत्वार्थसूत्रकारादिभिः' पाठकी कल्पना और उस उन लेखोंकी मामग्रीका रंचमात्र भी उपयोग नहीं हुआ है- को पुष्ट करनेवाली युक्तियां (प० २२५, २२६)। मेरी प्रवृत्ति तो उन लेखोंके देखनेकी ओर १५ नवम्बरको ६ सूत्र और सूत्रकार-विषयक राजवार्तिकका उल्लेख हुई है, जिसकी मुख्य प्रेरणा पहले दिन शास्त्रीजीके उसर- और श्लोकवातिकका विशेष कथन (प० २२७, २२८)। लेख को पढ़कर ही हुई थी। जब मैंने उक्त दोनो विद्वानों के ७ विद्यानन्दके साहित्यमे सूत्रकार' शब्द प्रा. उमालेखों परसे कोई सामग्री अपने लेखमें ली ही नहीं और न स्वातिके लिये प्रयुक्त हुआ है. इसके ६ उल्लेख (पृ० २२५)। मुझे उस वक्त तक उनका कोई परिचय ही प्राप्त था तब ८ विद्यानन्दके ७ ग्रन्थों परमे ३६ उल्लेख, जिनमें कहीं मैं अपने लेग्यमे उनका आभार भी कैसे मान सकना था' भी विद्यानन्दने अपने पूर्ववर्ती प्राचार्योंको 'सूत्रकार' और इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। और इसलिये उन विद्वानों पूर्ववर्ती ग्रन्थोंको 'सूत्र' नहीं बताया है (१०२२६. २३०)। का अाभार न मानकर मुख्तार माहबका, जिनमे मुझे यथेष्ट प्रथम कारणको सदोष ठहराने के लिये प्रमाणरूप महायता मिली, आभार मानने पर शास्त्रीजीने जो आश्चर्य में दिगम्बर और श्वेताम्बर सूत्रग्रन्थोंके है उल्लेख, जिनमें व्यक्त किया है उसमें कुछ भी तय नहीं है--वह उत्तर मंगलाचरण किया गया है (प० २३१, २३२)। लेखही तप प्रकृतिका ही एक अंग जान पडता है। १० दूसरे कारणको दृषित करते हुए कर्मस्तव,
यहां पर मैं शास्त्रीजीसे बड़े ही विनम्रभावके साथ षडशीति अादिके टीका ग्रन्थों-भाष्यांका हवाला, जिनमें यह पूछना चाहता हूं कि, यदि मेरा लेख उक्त दोनों विद्वानों मूलग्रन्थके मंगलाचरणका निर्देश और व्याख्यान नहीं के लेम्वोंकी सामग्रीके पिष्ट-पेषणकोही लिये हुए है, जैसा कि पाया जाता है (पृ. २३२, २३३)। उनका कथन है, तो वे कृपया यह बतलानेका कष्ट ज़रूर टीका-ग्रन्थोमे मंगलाचरणके व्याख्यान और उठाएँ कि मेरे लेखकी निम्न १६ बातें उन विद्वानोंके लेखो अव्याख्यान दोनों प्रकारकी पद्धतिकी उपलब्धिका कथन, में कहां पर पाई जाती हैं ?:--
जिससे पूज्यपादके लिये मंगलश्लोककी टीका करना लाज़िमी . 'कथं पुनस्तरवार्थः शास्त्र' इत्यादि श्लोकवार्तिक नही पाता (प० २३३)। का अवतरण, जो तत्वार्थसूत्रके आदिमे किये गये मंगलाचरण १२ श्रा. पूज्यपाद-द्वारा सर्वार्थसिद्धि में उक्त मंगलश्लोक को मिद्धि के लिये प्रस्तुत किया गया है (१० २२३)। को अपनालेनेकी बात और दूसरों के द्वारा भी दूसरेके मंगला.
२ 'प्रबुद्धाशेषतत्वार्थे' इत्यादि श्लोकवार्तिकके दो चरणको अपनाये जाने के प्रमाणोंका उल्लेख (०२३३)।