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अनेकान्त
[वर्ष ५
१३ श्लोकवार्तिकमें वर्णित 'वार्तिक' के लक्षणानुसार तीनों विद्यानन्दको विवक्षित हैं। तन्वार्थसूत्रका व्यनरछेदकर श्लोकवार्तिक और राजवार्तिकमें इस मंगलश्लोकका व्याख्यान मान श्लोकवार्तिक 'तत्' शब्दका वास्य नहीं है । इस बात न होनेका उल्लेख (पृ. २३३)।
को विज्ञ पाठक श्लोकवार्तिकके इस पूरे स्थल परमे भले १४ श्लोकवार्तिकमें भी उक्त मंगलश्लोकका व्याख्यान
प्रकार अवगत कर सकते हैं। किया गया है इसका स्पष्टीकरण (१० २३४)। _ 'मुनीन्द्र संस्तुत्ये' पदमे श्राये हुये 'मुनीन्द्र' शब्दसे
१५ तीसरा कारण दुसरे कारणसे भिन्न नहीं है विद्यानन्द प्रा. उमास्वातिका भी ग्रहण कर रहे हैं। ऐसा इसका निर्देश और पांचवें कारणके तीन अवयव मानकर ही पागे एक और उल्लेख 'मुनीन्द्राणामादिसूत्रप्रवर्तनम्' उनका सविस्तर उत्तर (पृ. २३४, २३५)।
के रूप में पाया है। वहाँ 'भुनन्द्र' का अर्थ विद्यानन्द निम्न १६ 'आदि' और इत्यादि' शब्दोंके प्रयोगकी प्रकार करते हैं :व्यर्थताका प्रदर्शन (पृ. २३४, २३५);
'इति युक्त (मुनान्द्राणां पगपरगुरूणामर्थतो ग्रंथतो यदि ये बात पं. रामप्रसादजी और पं. जिनदास जीके वा शास्त्रे-प्रथमनवप्रवर्तनम तद्विषयस्य श्रेयो मार्गस्य लेखों में नही पाई जाती हैं तो फिर मेरा लेख इन बातोंके पगपरप्रतिपाद्यैः प्रतिपित्सितत्वात ।' पिष्टपेषणको लिये हुए कैसे कहा जा सकता है? अस्तु ।
यहाँ स्पष्टतया 'मुनीन्द्र' शब्दमे ग्रन्थत. तन्वार्थसूत्रके इस सामान्यालोचन और निवेदनके बाद अब मैं उत्तर- आदिममूत्र-प्रवक्ता अपरगुम-उमास्वातिका भी उल्लेख लेखकी कुछ विशेष बातोको लेता है, और उनमे भी सबसे
किया गया है। श्लोकवार्तिक पृ० १ पर एतेनापरगुरुगणपहले उन बातोको लेकर उन पर अपना विचार प्रस्तुत धरादिः सूत्रकारपर्यन्तो व्याख्यात: इन शब्दों द्वारा सूत्रकरता हूं जो मेरे लेखकी कुछ बातों पर आक्षप-परिहारके
कार-उमास्वातिको बहुमानके साथ अपरगुरु माना है। रूपमें कही गई हैं।
अतः 'मुनीन्द्रसंस्तुत्ये · प्रवृत्तं सूत्रमादिमम्' इन वाक्यों में भाक्षेप-परिहार-समीक्षा
उमास्वातिका भी ग्रहण करना विद्यानन्दको इष्ट है। केवल इस प्रकरणमे शास्त्रीजा परिहारका मार 'प्रत्याक्षप' गणधर और उनके बाद के दो एक श्राचार्य ही उन्हें विवक्षित के रूप में देकर समाधान-रूप में उस पर अपना समीक्षात्मक
नहीं हैं बल्कि ग्रन्थतः प्रवका अपरगुरु-गणधरसे लेकर विचार प्रकट किया जाता है :
सूत्रकार पर्यन्त सभी विवक्षित हैं। १ प्रत्याक्षेप-'तदारम्भे पदमे आये हुये 'नत' शब्द
२ प्रत्याक्षेप-विना प्राचीन प्रतियोके श्राधारके प्राप्तका वाच्य तत्वार्थ मूत्र न होकर श्लोकवात्तिक है । यहाँ
परीक्षाके तत्वार्थसूत्रकारः उमास्वामिप्रभृतिभिः' पाठकी श्लोकवार्तिकके आदिमे किये गये 'श्रीवर्धमानमाध्याय मंगल
जगह 'तस्वार्थसूत्रकारादिभिः उमास्वामिप्रभृतिभिः' इस श्लोकको औचित्य सिद्ध किया है। और 'मुनीन्द्र पदमे
___ अन्य पाठकी कल्पना इतिहासके क्षेत्रमें ग्राह्य नही होसकती। विद्यानन्दको गणधर श्रादि विक्षित हैं न कि उमास्वानि ।
२ समाधान-'तचाथसूत्रकारादिभि:' पाठकी कल्पना १समाधान-प्रा. विद्यानन्द शास्त्र के ग्रादिम मंगला- संभाव्य कोटिम स्थित है, जिसकी पुष्टिम अनेक प्रमाण भी चरणका होना आवश्यक मानने हैं इसलिये 'कथं पुनस्तबार्थ. उपलब्ध होरहे हैं, जिन्हे मैंने अपने पिछले लेखमे एक शास्त्रं 'इन्यादिके द्वारा तत्वार्थसूत्र श्लोकवानिक और फुटनोट द्वारा प्रकट किया था और जिनपर उत्तर-लेखम कोई उसके व्याख्यान इन नीनाको शास्त्र सिद्ध करके 'ततस्तदा ध्यान नहीं दियाग या। 'मुनिपुङ्गवा पत्रकारादयः' 'मुनिभिः रम्भे' पटके द्वारा श्लोफवानिकादिके साथम मुख्यतया पत्रकारादिभिः' जैसे स्पष्ट उल्ले खोपरसे उक मंगत एवं तन्वार्थसूत्ररूप शास्त्रके प्रारम्भमे भी मंगलाचरण परापर गुरुका शुद्ध पाठकी कल्पना पुष्ट होनी ही है। इतिहास भी अधिश्राध्यान (स्मरण) करना सुयुक्त बतलाने हैं। अतः 'तदारम्भे' कांशरूपमे कल्पनाोके आधार पर ही तैयार होता है और पदमें आये हुये तन' शब्दका वाच्य शास्त्र है और वे जब उनकी पोषक घटनायें मिल जाती हैं तो वे प्रामाणिक शव तावार्थसूत्र, श्लोकवार्तिक और उसका व्याख्यान ये बन जाती हैं और इतिहामनिर्माण करती हैं । इसी तरह