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किरण १०-११]
तत्त्वार्थसूत्रका मंगलाचरण
उक्त पाठकी कल्पनाके पोषक जब अनेक उल्लेख उपलब्ध ____ तत्वार्थाधिगमाख्यं वहथं संग्रहं लघुप्रन्थम । होरहे हैं और यह भी पूरी तरह संभव है कि प्राचीन प्रतिमे वक्ष्यामि शिष्यहितमिममहेद्वचनैकदेशस्य ॥२॥ भी ऐसा ही पाठ मिले तब प्राचीन प्रतिके उपलब्ध न होने मर्थात्-मैं उमास्वाति जिमेन्द्र भगवानके एकदेशके नक उक्त पाठकी कल्पना इतिहागक्षेत्रमे अग्राह्य कैसे कही
सग्रहरूप इस अर्थबहुल लघुप्रथ तस्वार्थाधिगमको शिष्यजा सकती है? यदि शास्त्रीजी इसे यों ही अग्राह्य कहगे तो हितार्थ कहंगा। उनकी वह कल्पना भी अग्राह्य ठहरेगी जो उन्होंने था. इस कारिकासे ठीक पूर्वर्ती २१ वी कारिका कृत्वा विद्यानन्दकी मान्यताको पूर्वपरम्परा प्राप्त न होनेके सम्बन्ध निकरणशुद्धं तस्मै परमर्षये नमस्कारम्' इत्यादि हैं जिसमे में की है।
वीरभगवानके नमस्कारात्मक मंगलका प्रतिपादन है। इस ३ प्रन्यानेप-मेरा तात्पर्य प्राचीन संस्कृत भाषाम
मंगलाचरण करनेके बाद अपने ग्रंथ रचनेके उद्देश्यको निबद्ध सत्रग्रन्थोंम मंगलाचरण करनेकी पद्धति दृष्टिगोचर
प्रकट करनेके लिये ही उक्त २२ वी कारिका रची गई है। नहीं होने का है।
यहां इस कारिकामें श्राया हुश्रा 'वक्ष्यामि' पद विशेष ३ समाधान-पत्रग्रन्थ संस्कृत और प्राकृत दोनों
ध्य न देने योग्य है और उससे साफ जाहिर होता है कि ही भाषायाम पाये जाते हैं। यदि संस्कृत भाषाके सत्रग्रंथ
कमसे कम इस २२ वीं कारिका तक तो तस्वार्थसूत्रकी ही अभिप्रेत थे नो श्रापको पहिले ही संस्कृत शब्द विशेषण
रचना नहीं हुई है। अन्यथा, तत्त्वार्थसूत्र बना चुकने के बाद रूपसे साथम देकर अपने पक्षको स्पष्ट करना चाहिये था।
गदि भाष्य बनाते समय यह कारिका रची गई होती तो दोष दिग्वाये जानेपर संस्कृतमत्रग्रन्थोंका अभिप्राय बतलाना
प्रा. उमास्वाति 'वच्यामि' पदका प्रयोग न करके 'उ' पत्तको परिवर्तन अथवा संशोधन करने जैसा है, और इस
जैसे पदका ही प्रयोग करते । तस्वार्थमूत्रकी उस सटिप्पण लिये इसके द्वारा आक्षेपका परिहार नहीं बनता । संस्कृत
प्रतिसे भी कारिकाएं मूल के साथ निबद्ध मालूम होती हैं मत्रांमे भी श्वेताम्बर तत्वार्थमत्रका उदाहरण पर्याप्त है, जिम
जिपका परिचय संपादक 'अनेकान्त' ने तृतीय वर्षकी प्रथम के मंगलमय पद्यको पागे स्पष्ट किया गया है। और ब्रह्म
किरणमें पृ० १२१ से १२८ तक दिया है, और जिसका सत्रादिके शुझमें 'अथ' शब्दका जो प्रयोग है ब्रह मङ्गला
मैंने अपने लेखमें फुटनोट द्वारा उल्लेख भी किया था। मक भी है, जैसाकि उन्हीकी श्रनिके निम्नवाक्यसे प्रकट है
५ प्रत्याक्षेप-कर्मग्रंथोंके भाष्य विशेषावश्यक
भाप्यकी तरह अविकल व्याख्यानात्मक न होकर भावश्यक ओङ्कारश्चाथशनश्च द्वावेता ब्रह्मणः पुग।।
नियुक्तिके मूलभाष्यकी तरह पूरकभाष्य हैं और इसलिये कण्ठं भित्या विनिर्याती तेन माङ्गलिकावुभौ ।।
उनमें मूलग्रंथके हरएक वाक्यका व्याख्यान करना आवश्यक -वैशेषिक सूत्रोप० पृ०.
नहीं है । इसीसे उनमें मंगलगाथाके सिवाय मध्यकी प्रत्याक्षप-वे ३१ कारिकाएँ मूलकी नहीं हैं, अनेक गाथाओंको भी अव्याख्यात छोड़ दिया है। परन्तु भाग्यकी हैं । तत्वार्थपत्र बना चुकनेके बाद उमा वानिने
अकलंक और पूज्यपादके अखण्ड व्याख्याग्रंथ-राजवार्तिक, भाग्य बनाते समय उन्ह मूलग्रयको लक्ष्य करके भाग्यके
सर्वार्थ सिद्धि ऐसे भाष्य नहीं है, उनमें मूलग्रंथके 'च' 'तु' अगरूपम बनाई हैं।
जैसे शब्दों को भी अव्याख्यात नहीं छोड़ा है। अत: इनके ४ समाचान---उक्त क.रिकाएँ मूलग्रंथके साथ ही विषयमें मंगलश्लोकको अव्याख्यात छोड़नेकी बात कहना निबद्ध (रची गई) है । तत्वार्थसत्र बना चुकने के बाद उमा- इनकी शैलीको न समझनेका ही फल है। स्वातिने उनकी रचना नही की, जैसा कि निम्न २२ वी ५ समाधान-पूरक भाष्य वे को जाते हैं जो मात्र कारिकामे स्पष्टतया प्रकट है, जो मूल ग्रंथका नाम, विषय, छटे हुए-पूर्वम अव्याख्यात विषय पर ही व्याख्या करें। प्रकृति, प्राकृति और प्रयोजनका उल्लेख करके उसके रचने किन्तु ऊपर जिन भाष्योंका हवाला दिया गया है वे च्याकी प्रतिज्ञाको लिये हुए है
ख्यात विषयका भी प्रतिपादन करनेये पूरक भाष्य नही कहे