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जीवन है संग्राम !
[ ले० --- श्री 'भगवत्' जैन ]
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[1] -लात मारे ज़मीनमें, तो पानी निकल पड़े ! और उस पर माँगने चला है भीख ! ह ह ! हिन्दुस्तान में जैसे और कोई पेशा रह ही नहीं गया ! जिसे देखो, भीख माँगता है! कोई थका-दुबला हो तो एक बात भी है ! यह हट्टा-कट्टा, खम्बा चौड़ा नौकरी करे तो आठ माने जाए ! लेकिन करे क्यों ? मशक्कत जो पड़ती है—उसमे !' वह रुका, मुँहमे पानका बीडा मने के लिए! फिर एक पीक छोड़ते हुए, बढे भले मानुसकी तरह सभ्यतापूर्वक बोला- 'जा, जा बाबा ! हमे बख्श ! — और चल दिया डिकारतकी नजर से देखता, सिगरेट और माचिसके बक्मोंको जेबमे डालता हुआ !
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पनवादी अपनी दूकानदानीमे मशगूल था। सम्भव है, उसे पता तक न चला हो, कि उसका कोई ग्राहक किसी भिखारीसे उलझ कर उसे खरी-खोटी सुना गया है !
पर, निरंजन देखता भर रह गया- एक टक | उसे जो ग्लानि, चोभ और पीड़ा हो रही है, वह किसे बताए ? वह किसे कहे कौन सुनेगा कि वह पहली बार आत लाचार होकर भीख मांगने निकला है! जब नही दे सका है—भूसे व्याकुल पानीका मुंह नहीं सुन सका है, रोते- तते बच्चेका चार्त्तनाद ! वह खुद भूखा रह सकता है, एक दिन, दो दिन ! और उतने दिन, जब तक उसकी श्रखिरी साँस न आ जाय ! लेकिन उन्हें वह खुली श्रीँखों तबते हुए कैसे देखे, जिनकी परवरिशकी जिम्मे दारी उसके हाथोंमें है ? नहीं, वह अपने बच्चे के लिएअपनी पत्नीके लिए भीख माँगेगा, अपमान सहेगा, और वह सब कुछ करेगा, जो उसके वश में होगा, जिसे वह कर सकता है !
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'ऐ, ऐ ! एक तरफ़ हट !'
निरंजनकी विचार धारा टूटी ! नज़र उठाकर उसने देखा एक सूट-बूट भारी नोजवान सामने खड़ा है, पन
arst fertent बक्स उसकी ओर बढ़ा रहा है ! वह सरक गया, एक ओर ! फिर उसे होश आया 'अच्छे कपड़े हैं, सिगरेट खरीद रहा है, शायद पैसे वाला है !" वह फिर बढ़ा ! कुछ कहने ही जा रहा था, कि कैन्टिलमैन बने आप ही पूँछ दिया क्यों ?'
निरंजन घबरा-सा गया ! अभ्यस्त भिखारी जोन था ! जल्द बोला'ब भीख!'
'क्या भीख ?'
निरंजन चकराया ! सोचा- 'अभी डॉट बताता है, शायद मार न बैठे ? कैसी मुसीबत मे पहा हूं-- श्राज !' कुछ सोच कर बोला- नौकरी लगा, बामेरी"
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'श्रक्ववखखः खः ।' बाबू हॅमे, इस जोरसे कि पनवाडी चौका, और उसके सभी ग्राहक ! सबमे कौतुक, कि बात क्या हुई ?
वह बोले-- 'नौकरी ? नौकरी इन्द्र देवताके सिंहासन से भी मुश्किल है-- श्राज ! समझा " ?'
निरंजन चुप !
उन्होने उपस्थित जनकी ओर मुखातिब होकर कहा'अच्छा भिखारी है, भीमे नौकरी मांग रहा है. ठीक है कुछ ? न पैसा न दो पैसा एक दम नौकरी ? जैसे नौकरीको कुछ समझा ही नहीं । श्रभ्यो ! नौकरी पारसपत्थर, चिन्तामनीसे भी बद कर हो रही है पता हैकुछ ?'
खड़े हुए लोगोंने समर्थन किया उनकी बातका ! जैसे सभी उसका कडवा घूँट पिए हुए हों, सभी भुक्त भोगी हों !
जरा अधिक खुलकर से बोले में दूसरोंकी नही कहता---'खुद वः महीनेसे नौकरीकी तलाशमे दर-दर भटक रहा हूँ. जगह-जगह दुस्कार खाता हूँ । पर, वह है जो आज तक नही मिल रही ! यह तो चीज क्या, पदा न लिखा ! मुझे देखोसेको किताबे चाटे, हजारी
रुपये फुके बैठा है
कितने साक्रकेट जेब भरे हुए हैं !
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