________________
किरण ८-६]
मोक्षमार्गस्य नेतारम्
२८७
तत्परिहारो विशेषाभिधानं च' । अत: वार्तिकों के लिये उनके का अभिप्राय भी इस मंगलश्लोकको सूत्रकारकृत माननेका है। स्वरूपसे ही यह शावश्यक नहीं रहता कि वे सूत्रोंके परिहार-इसका उत्तर हमारे इसी लेखमें पहिले अतिरिक्त मंगलाचरण की भी व्याख्या करें।
विस्तार दिया जा चुका है। परिहार-वार्तिकका लक्षण कुछ भी क्यो न हो पर आक्षेप (पृ. २३४)-विद्यानन्द और श्लोकवार्तिकके प्रश्न तो यह है कि जब अकलंकदेव और विद्यानन्द उमा- अनन्तर आदि शब्दका प्रयोग प्रमाद और अनभिज्ञता है। स्वामीके एक भी शब्दको विना व्याग या उथानिकाके परिहार-जैनसिद्धान्तभास्करके जून सन् ५२ के अंक नहीं छोड़ते, उनपर वार्तिक बनाते हैं, उन्थानिका लिखते में मैंने जो टीका न करने वाले प्राचार्योंकी सूचीमें विद्यानन्द हैं, और अविकलव्याख्पापद्धतिमे उनकी व्याख्या करते हैं तब के बाद तथा श्लोकवार्तिक्के बाद आदि शब्दका प्रयोग मगलाश्लोक क्यों उन्होंने अयता छोडा । अथवा, यदि किया है वह अनेक श्वेताम्बर व्याख्याकारोंको तथा उनके उसपर वार्तिक लिखना इष्ट नहीं था तो उसकी तत्त्वार्थसूत्र व्याख्यानन्याशे लक्ष्यमें रखकर किया है। क्योंकि तत्वार्थके अन्य मृलशब्दोंकी तरह सीधी व्याख्या तो की जासकती सूत्र समानरूपसे दोनों सम्प्रदायोंको मान्य है । कहा जा थी। अकलंकदेवने तत्वार्थ सूत्रके जिन अनेकसूत्रोंपर वार्तिक सकता है कि श्वेताम्बराचार्योका जब भागे विशेषरूपसे लिखना आवश्यक नही समझा उनकी व्याख्या अवश्य निर्देश किया है तब यहाँ आदि पदसे क्यों उनका निर्देश की है-उदाहरणार्थ-५-२८, ७-४, ५, प्रादि, म-२६, किया है ? इसका उत्तर यह है कि आगे 'मंगलश्लोककी' १-४४.१०.६ प्रादि । यदि यह श्लोक तत्वार्थसूत्र ग्रन्थ असाम्प्रदायिक स्थिति पर जोर देनेके लिए उन प्राचार्यों का अवयव है तो सूत्रग्रन्थका अवयव होने से अन्य सूत्रोंकी का प्रथक निर्देश करके बताया है कि यह श्लोक अत्यन्त तरह यह भी मंगलसूत्र ही हुआ, और इसलिए इसपर असाम्प्रदायिक है अत. श्वे. व्याख्याकाको सम्प्रदायिकता वार्तिक बनना न्यायप्राप्त है। सूत्र गद्यरूप ही हो पद्यात्मक के कारण उसे छोडनेकी कोई आवश्यकता नहीं थी। नहीं यह नियम तो है ही नही।
जैनसिद्वान्तभास्कर (पृ. १२) में मैंने स्वयं श्रुतसागर श्लोकवातिकमे किया गया वार्तिकका लक्षण आपके मूरि बालचन्द्र योगेन्द्रदेव श्रादिके मतकी आलोचना की है किये गए अर्थके अनुसार अध्यापक हो जाना है, क्योंकि अत: उन श्राचार्योंसे मैं अपरिचित था यह बताकर मेरे दिङ्नागके प्रमाणसमुच्चयपर लिखे गए प्रमाणवानिको ऊपर जो अनभिज्ञता या प्रमाद जैसे साधुशब्दोंकी पात्रता यह लक्षण नही पाया जाता--यत. एक तो प्रमाणसमुच्चय का श्रारोप किया है वह उन्हींके योग्य है। सूत्रग्रन्थ नहीं है । दूसरे उसमे अन्यवार्तिकोंकी तरह आक्षेप-(पृ. २३५) तत्त्वार्थवृत्ति पदविवरणमें इस मुख्यरूपमे अनुपपत्ति-परिहारकी शैली नहीं है। अतः मंगलश्लोकका यथावत व्याख्यान नहीं है, मामूली निर्देश है। वार्तिक के लक्षणमे श्राप हुए सूत्रपदका अर्थ है मृलभाग परिहार-इस विवरण अन्यकी जितनी मर्यादा एवं या व्याख्येय अंश । उसमे कहीं मूलभाग या व्याप्येय अंश शैली है उसीके अनुसार 'यथावत व्याख्यान' शब्दको का अनुपपत्ति-परिहारक रूपमे विवेचन होता है और कहीं लगाईये । ग्रन्थकार जिसका जिस रूपसे व्याप्त्यान करना विशेषाभिधानमात्र । अत' वानिकके लक्षणके आधारसे चाहता है वही उसका 'यथावत' व्याख्यान है। मंगलश्लोकके अव्याख्यानका समर्थन करना उचित नहीं है। प्राक्षेप (प० २३५)-चुने हुये हेतुओंके सिवाय अन्य वार्तिकका एक व्यापक लक्षण है-उनानुक्तदुरुस्कार्थ. कारणोंको सूचन करनेके लिये 'ग्यादि' शब्द यों ही लिख चिन्तावारि तु वार्तिकम्', (हैमकोश) अर्थात उक्त अनुक्त दिया है, इत्यादि शब्दका प्रयोग कुछ महत्व नहीं रखता । और दुरुक्त पदार्थों का विचार करने वाला वार्तिक होता है। परिहार-मेरे लेखके पीछे जिन युक्तियोंकी पृष्ठभूमिका अत: यदि तत्त्वार्थसूत्रमें यह मंगलश्लोक उक है तो थी उन्हें मैंने इस लेखमें लिखा है । वे महत्वकी हैं या उसकी चिन्ता करना वार्तिकको अवसर प्राप्त है ही। नहीं यह लिखना मेरा कार्य नहीं है। श्राक्षेप(पृ०२३३)-मंगल पुरस्मरस्तव' शब्दोंमे अकलंक
(शेष पृष्ठ ३२८ पर)