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अनेकान्त
[वर्ष ५
'मुनीन्द्रसंस्तुत्ये' विशेषणकी सार्थकता बताते हुए के बाद उमास्वातिने भाष्य बनाते समय इन कारिकाओंको विद्यानन्द स्वयं भागे (तत्त्वार्यश्लोकवार्तिक पृ..) लिखते मुखग्रंथको लक्ष्य करके भाष्यके अंगरूपसे बनाया है। *कि-"विनेयमुख्यसेव्यतामन्तरेण सतोपि सर्वज्ञ-बीत- श्रीमान् पं० सुखलालजीने इस विषय में जो शब्द लिखे हैं, रागस्य मोक्षमार्गप्रणेतृत्वानुपपत्ते: । प्रतिग्राहकाभावेपि तस्य जिन्हें अधूरा उद्धृत किया गया है, ध्यान देने योग्य हैंप्रायने अधुना यावत्तत्प्रवर्तनानुपपत्तेः” अर्थात् सर्वज्ञ "भाष्यके प्रारम्भ में जो ३१ कारिकाएँ हैं वे सिर्फ मूलवीतराग इसका प्राय प्रवक्ता हो भी जाय पर जब नक सत्ररचनाके उद्देश्यको ऊतलानेकी पूर्ति करती हुई मूलग्रन्थ उसके कहे गए उपवेशको ग्रहण करने वाले गणधर आदि को ही लक्ष्य करके लिखी गई मलम होती हैं।" अतः मध्यविनेय नहीं होंगे तब तक मोक्षमार्गका प्रणयन नहीं जब वह मंगलकारिका भाष्यत्री ही अंग है तब उसको सकता। यदि विनेयजनोंके अभावमें भी उपदेश दिया व्याग्ल्यानका प्रश्न ही नहीं उठता। गया होता तो आजतक उसकी परम्परा नहीं पा सकती
आक्षेप (पृ. २३२) मूलग्रन्थके मंगलाचरणके व्याख्यान थी। इस सन्दर्भमें 'मुनीन्द्रसंस्तुत्व' विशेषणसे विद्यानन्द करनेकी पद्धति पहिले थी जैसे श्वेताम्बर सम्प्रदायके कर्मयह सूचित कर रहे हैं कि सर्वज्ञके पास गणधर आदि स्तव और षडशीति नामके द्वितीय और चतुर्थवर्म ग्रन्थ । मख्य विनेय रहते हैं तभी उनमें मोक्षमार्ग प्रणेतृव बन परिहार-हर एक ग्रन्थकारकी पद्धति और प्राचीन सकता है, न कि इसके द्वारा 'मोक्षमार्गस्य नेतारम्' श्लोक भाप्यों तथा चणियोंके स्वरूपपर सावधानीसे विचार करने की उमास्वातिकर्तृकताका सूचन हो रहा है।
पर इस श्राक्षेपको स्थान नहीं रहता। कर्मग्रन्थोंके प्राचीन आक्षेप (पृ.२२४)-अलपरीक्षाके तत्वार्थसूत्रकारैः
भाष्य विशेषावश्यकभाष्यकी तरह अविकलव्याख्यानानात्मकउमास्वामिभृतिभिः' इस उल्लेख में 'तत्वार्थमूत्रकारादिभिः'
भाष्य न होकर आवश्यक निर्मुक्ति के मूल भाष्यकी तरह पूरकयह शुद्ध पाठ होना चाहिये।
भाष्य हैं। और इस लिए उनमें मूल ग्रन्थके हरएक वाक्य परिहार-ये ही तो ऐसे इतिहासप्रधान उल्लेख हैं का व्याख्यान होना आवश्यक नहीं है। यही सवय है कि जिनसे ग्रंथकारकी ऐतिहामिक दृष्टि पर प्रकाश पड़ना है। उनमें न केवल मंगलगाथाका ही व्याख्यान छोडा गया है अतः विना प्राचीन प्रतियोंके आधारके तत्वार्थपत्रकार' किन्तु मध्यकी अनेक गाथाओंका भी उनमे भाष्य नहीं है। इस लक्षणशुद्ध पाठकी जगह 'तत्त्वार्थसत्रकारादिभिः' इस परन्तु पुज्यपाद और अकलंककी व्याख्यापद्धति ऐसी नहीं अन्य पाठकी कल्पना इतिहासके क्षेत्रमें ग्राह्य नहीं हो सकती। है। वे मूल ग्रन्थके 'च तुजैसे शब्दोको भी अव्याख्यात
आक्षेप-(पृ. २३१) प्राचीन दि० श्वे. सूत्रग्रंथ हैं नहीं छोड़ते । अतः इनके विषयमें मंगलश्लोकको अव्याजिनमें मंगलाचरण पाया जाता है।
ख्यात या निरुत्थानरूपसे अनिर्दिष्ट छोइनेकी बात कहना परिहार-मेरा तात्पर्य है कि प्राचीन संस्कृत भाषा- इनकी शैलीके न समझनेका ही फल है। निवद्ध सत्रग्रंथों में मंगलाचरण करनेकी पद्धति दृष्टिगोचर दूसरे, कर्मग्रन्थोमे यदि मंगलगाथाबोंका व्याख्यान नहीं होती-जैसे ब्रह्मसत्र, मीमांसासत्र, वैशेषिकसूत्र नहीं है तो वे मूल ग्रन्थसे बहिष्कृत तो नहीं की गई हैं उनमें न्यायसन, योगसत्र, प्रादि । उत्ती तरह तत्त्वार्थमत्र ऐसे यथास्थान निर्दिष्ट हैं तब राजवार्तिक्में उनके निदेश न करने ही सत्रग्रन्थोंकी कोटिका है। इसके लिये षट् खंडागम आदि का क्या कारण है ? अनेक पुराने भाग्य ऐसे हैं जिनका का हवाला देना उपयोगी नहीं है। और न इससे मेरे परिणाम मूलग्रन्थमे कम है जैसे प्रावश्यक नियुक्तिका मूलविचारमें कोई बाधा ही उपस्थित होती है।
भाष्य अतः कर्मग्रन्धोंके ऐसे ही पूरकभाप्योंमे सर्वार्थसिद्धि आक्षेप (पृ. २३२)-स्वार्थपत्र में मूलसे सम्बन्धित और राजवार्तिक श्रादि अरंड व्याख्याग्रन्थोंकी तुलना करना ३१ कारिकाएँ उमास्वातिकृत मानी जाती हैं उनमें नमस्का- उचित नहीं जान पड़ता। स्मक मंगलाचरणकी कारिका है।
आक्षेप (पृ. २३३) गजवानिक भीर श्लोकवार्तिक परिहार-प्रचलित मान्यतानुसार तत्वार्थसत्र बना चुकने वार्तिक हैं। वार्तिकका लक्षण है 'मूत्राणामनुपपत्तिचोदना