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________________ किरण -१] जीवन है मग्राम २८६ पर, नौकरीके नाम पर कोई पाठ रुपए तकको नहीं से बड़ा संकट मानता पा रहा है--इन दिनों। पूछता-यह तमाशा है। झोपड़ी पाम पाती जा रही है और निरंजनका दिल एक खौँ साहेब जो धेलेकी दियों ग्वरीदनेको खहे घबगता-सा जा रहा है डरता-सा जा रहा है ! वह सोचने हुए थे, और रह-रह कर पनवाडीके लम्बे श्राईनेमें अपनी लगता है--'काश ! बह दनियामे अकेला होता!' सूरत नेम्वते जाते थे बोले--'वाकया है, सच कह रहे हो- वह स्वयं भूग्वा मर सकता है, पर बीवी-बच्चेको बाबुजी ! यही बात कल एक दूसरे जैन्टिलमैन भी सुना तडपते देग्वना उमे मा नहीं । यही तो उसकी समस्या रहे थे । मैं ही उन्हें अपने तांगेमे लाया था, बेचारे बडे है! ... स्त्री बीमार है। और उसका मर्ज है वह, जो सीधे थे ! कहते थे कि और देखता र महीने दो महीने-- एलोपेथी होम्योपेथी या आयुर्वेद किमीमे भी स्थान नही लगती है नौकरी तो ठीक ! नही तो अब बे-मौत मरना पा रहा। वह भूग्यसे व्याकुल है। पिछले दिनों, जो कुछ ही तय किया है। बेचारे अतिया गए थे-जिन्दगीमे । पेटमें डालने लायक मिला है, वह सब उसने अपने पुत्र बीबी थी, बच्चे थे, और सबको चाहिए खाना । श्राए और अपने पतिको खिलाया है, स्वयं भूम्बी रही है। क्यों कहाँसे ? बडे परेशान थे।" कि यही तो स्त्री-हृदयकी ममता नामम्मे पुकारी जाने वाली ___'एक वे अकेले क्या परेशान थे, दुनिया परेशान है! चीज़ है। क्या नीकर-पेशा, क्या मजदूर, दकान्दार"--एक दूसरे मजन झोपडीसे अभी दर ही था कि बचेके गेनेकी आवाज बोल उठे, जो शायद या तो छोटे-मोटे दुकानदार थे या दलाल! सनाई दी। वह सिर थामकर वही बैठ गया ' उसे चक्करपान खाने श्राप थे, और खाकर उल्टे पैरों लौट रहे थे, सा पा रहा था। सिर्फ बच्चेकी दीनताने ही उसे बैठने के जल्दी ही। पूरी बातें उनने गुनी न थीं, न सुनने की दिल- लिए विवश किया हो, सो बात नही, दिन-भरकी दौड़-धूप चस्पी थी उन्हें। और खाली पेटकी निष्टुरता भी इसमें माझीदार थी। ... निरंजन जितना सुन रहा था, समझ उससे ज्यादह मुस्त-सा, निरंजन खड़ा था, और रोता बच्चा पैरोमें रहा था । बाते जो उसी की समस्या को लेकर उठी थीं। चिपटा पा रहा था। न जाने क्यमे रो रहा था? पर, वह चुप था और मोच रहा था--'कितनी भयानक है निरंजन पर उसके रोनेका कोई प्रभाव न हो रहा थादुनिया ? और कितना कठिन है जीवन-संघर्ष ? ताजुब है, वह गुम-सुम था। पाथरकी तरह । फटे-टाट पर स्वीका लोग जीवित कैसे रहते पा रहे हैं" निर्जीव-शरीर पहा हा था श्रोखे खुली हुई थी, मह फटा हुश्रा ! सूखी-सी जीभ श्रीग्व रही थी, जो एक दम सफ़ेद थी!... चिराग जल चुके । निरंजनके पैर घरकी ओर बढ़ रहे निरंजन की ओग्वाने न प्रोसू डाला एक बंट । न मॅहने है--विवश, हताश, निर्जीव सदश ! रात सबके लिए प्राई 'अाह ' भरी । यम्भव है, उसे स्त्रीको मृत्युमै अपने जरूर है, पर निरंजनको लग रहा है, जैसे वह उसकी एकाकी जीवनकी-झलक दिग्वलाई दी हो। चेष्टा पर भी अँधेरी चादर डालनेका दावा कर रही है। देर तक बढ़ा रहा, पागलकी तरह । देखता रहा दिनमें यह घूमता-फिरता तो रहा है, अपनी उस पीडाको बगैर पलक मारे स्त्रीकी ओर । उसे लगा जैसे वह मेरी भृला-सा तो रह सका है, जो उसे भूखसे भी ज्यादह दुःख ही राह देखते-देखते पर लोक गई है । दर्वाजकी ओर ही पहुंचाती रही है जो असयताकी सीमा पर जा चदी है। उसका मह है, नजर है। और अब मैंह ग्बोलकर जैसे बेशक, उसे प्राज एक दाना भी भीख के नामपर नहीं पूछ रही है-- क्या आज कुछ मिला ' बरके लिए, मिला है, पर आशाकी सुनहरी-तसवीर तो उसकी दृष्टि-पथ अपने लिए कुछ जुटा सके नही। तो बच्चा कैसे पर झूलती रही है न ? बीबी-बच्चे की करुण-मूर्ति नो प्रोखों जियेगा? तुम भृग्वे कैये रहोगे तुम्हे तो भूग्वमे चक्कर के पागेसे श्रोझल रही है, न ? जिसे वह अपने लिए मब श्रामे लगते हैं सबियन बगब हो जाती है ।' 'बोलो न" x
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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