________________
२६०
अनेकान्त
वर्ष ५
निरंजनकी सारी शक्तियों स्त्रीके मृत-शरीर पर टिकी ही मोऊँगा, अटूट निद्रामे !' हुई हैं ! वह कई बार इशारेसे बच्चेको चुप करनेका गला दबाया। निष्फल प्रयत्न कर चुका है। कई बार हायसे झटककर उसे पहले धीरे-धीरे । फिर ज़रा जोरसे! मुंह लाल हो अपनेसे दूर हटा चुका है। पर, वह न चुप हुश्रा है न दूर ! गया। आँखामे प्रोसू निकल पाए । शरीर कौंप उठा। चुप करना, भूस्वकी शान्ति पर था। और दूर हटना मोंके रुक गया, निरंजन । शायद यह सोचा हो, कि दूसरे श्राधार पर । अब इसमें रमका क्या अपराध ? . को मारना जितना सहज है, मरना उतना अामान नहीं।
लेकिन निरंजनको लगा यह बुरा । वह मल्लाकर फॉपी लगानेकी तजवीज सोची गई हल्की-इन्छाये । बोला--'मुझे वा ले।'
झोपड़ी में न छत थी न कडी, न कुन्दा! और तभी उसके मनमे एक पैशाचिकता उत्पा सोचने लगा—'मुझे मरनेकी ज़रूरत क्या? जिनके हुई ।--'वह दुनिया मे अकेला जरूर नहीं है लेकिन अकेला दुखम्मे मरना सुरव मालूम देता था, वह तो मर ही चुके ! रह सकता है!'
अब ?--अकेला हूं-मारे संसारमें । चिन्ता किमकी ? बचा रोता रहा।
एक टुकडा मिला, वही बहुत ! न मिला फिक्र नही जी निरंजनका मन धधक उठा ! उसने सोचा-'स्वाना का जंजाल मिटा', चाहिए, स्वाना नहीं है तो उबदस्ती ज़िन्दगीके लिए और तब कठोरताका पुतला निरंजन रातक अंधेरेमे झगडना क्यों"
झोपहीसे निकल कर न जाने कहाँ गायब हो गया। चुप हो चुप हो। नहीं हुआ चुप ! किसके श्रागे रोता है किसे पिंधलाना चाहता है--रोकर हो बात बहुत पुरानी हो चुकी है! इतनी कि जितना चुप !' और निरंजनने वसकर बच्चका मह बन्द कर
निरन । काले बालोमे सफंदी श्रागई है ! तनी हुई खाल दिया - दोनो हाथोंसे । पिताने पुत्रके-उपी पुत्रके, जिसे
में झुरियो पढ़ गई हैं, और होगया है हृदयमे एक मौलिक दनियामे रत्न कहा जाता है, जिसकी प्राप्ति पर कठिनतास
परिवर्तन । वह अब एक पुराना भिखारी है! मांगने के कमाया धन, पानीकी तरह बहाकर, खुशियां मनाई जाती
सैकड़ों हथकरके उसे याद हैं ! जीभ बगैर प्रयन्नकेहैं, दम घोटनेकी कोशिश की। तब तक मेह बन्द-योस
'दाता | भिखारीको एक पैसा मिले।'-उगल देता है ! बन्न -किए रहा, जब तक कि वह बिल्कुल चुप न
सब कुछ है ' पर, निरंजन मुखी आज भी नहीं हो होगया ।..
सका है ! उसका वह स्वप्न, स्वप्न ही रहा कि 'अकेलको वालकका छोटा-सा अस्थि-पर निर्जीव पड़ा था। चिन्ता क्या '' आज भी उमके पागे चिन्ता रहती है। ---अमहाय! ...
मोगन यानेका काम आज भी उसे करना पड़ता है। और निरंजनम श्रामुरो-शनि काम कर रही थी। पिताका मसीबत यह है कि उपके खाने लायक भी भीख उसे नहीं दिल उसके मीनेम नहीं था. मानवबसे रीता था वह उस मिलती। कई दिन, कई रात ऐसी होती हैं, जब वह भूग्वा समय ! न जाने क्या करना चाहता था और क्या कर रहा घूमना और मोता है! था शायद अपने 'श्राम नहीं था !
रातको जब अकेला सोता है, तो अोखामे आंसू भरस्त्रीके मृतक शरीरके समीप लाकर बचेको लिा भर पाते हैं। कभी निकलता भी एकाध उद्गार तो 'धे दिया। श्रीर मन्नोषके में बोला -'बम, सोते रहो कंठ- मेरा बशा! प्रोफ । श्राज कितना बड़ा होता? श्रानन्दसे माथ-साथ ''
सोचता - 'दुनियामे आज मैं बिल्कुल अमला हूँ । एक नजर दानाको देखकर निरंजन उठा आरम-हत्या तब एक नज़र ऐसी थी, जो मुझे सहानुभूतिमे देवती थी, करनेका निश्चय लेकर ! और वोला, भारी आवाज़ मे दर्दमे देखती थी! माह । वह कितना चाहती थी मुझे। ---- घबराम्रो नही । मैं भी नुम्हारे पास आता है, बराबर मुझे भूखा देख, उसकी छाती फटती थी। और आज ?