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किरण ८-६]
जीवन है संग्राम
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मैं दो दिनसे भूखा है-कौन जानता है ? किसे चिन्ता भूखा रह कर जिन्दा रहना जो सम्भव नहीं ! फिर ? है-मेरी?
लोग राजीसे जब देना नही चाहते, तो भृग्वेको जबर्दस्ती
लेनेका हक है। ह हः हः ! [३]
निरंजन हँमा । शायद भूग्वकी व्यग्रता पर। और ढाल-जमीन पर फिसलने वाला व्यक्ति भले ही बल. तय, भृम्खने उसे एक रास्ता सुझाया--'चोरी!' शाली क्यों न रहे, लेकिन जब फिसलता है, तो रुकता ठीक । मैं अब चोरी करूँगा और निश्चय ही इस नए नही' बीचमे रुकना बहुत मुश्किल पड़ता है, फिसलने पेशेमे मुझे भूम्वा न रहना होगा। लेकिन पकड़ा गया वालेको। यही बात पतनके गस्ते पर कदम धरने वाले के तो ?-जेल | बम, इतना ही तो, और क्या ? वहीं लिए भी है। प्रायः पतन अपनी चरम-सीमा पर पहँच खानेकी फिक्र न रहेगी न ?' कर ही सन्तोपित होनेका आदी है ! .. निरंजन भूखा है। और भूख है दुनियामें, हजार
सुबहके मादे-तीन, चार बजेका वक्त । कुछ-कुछ बदकारियोंसे एक · 'भूग्वे पंटको जो तर्क जो प्रयत्न मूझने अंधरा' यमुनाके मवेग जलक
अंधेरा। यमुनाके मवेग जलकी कल-कल धनि ! स्नानाहैं, वे अमानुषिक और पापमय ही होते हैं ! श्रीचिश्य उन
थियोंका कोलाहल । गंगा-दमहराका दिन । में नही रहता।
निरंजन श्राज पहली बार चोरीकी नाकमें घूम रहा वह नहाके पुल पर आ खड़ा हुआ है-डूब-मानेके है । अाज भी उसके मनमें वैसी ही धड़कन है, जैसी लिए । भूग्वो मरनेसे अात्मघात करना उसे उचित और पहली बार भीख मांगने के वक्त थी। पर, प्राज मुंह पर सुगम जान पड़ा है। लेकिन जीवनकी ममता अभी भी दीनता नही, हेकड़ी है! उसका पीछा छोडनेको तैयार नहीं है।
लोगोंकी भीडका ठिकाना नहीं । स्त्री, पुरुष, बृढे बच्चे वह सोच रहा है.-- नौकरीके लिए गिडगिड़ाया, न मब नट पर कपडे उतार-उतार कर स्नानके लिए जा मिली । भीग्व मांगने पर उतारू हा हूँ, तो आज उसमें भी भूखा मरनेकी नौबत पा रही है। मुझे आज भीखका निरंजनकी घात लगी । वह दूर रवी एक पोटलीको अनुभव है ' मैं जानता हूं. कि पिछले दिन मैंने किम उठाकर चला · पहले धीरे-धीरे । फिर ज़रा तेज़ । नरह बिनाए हैं और समझ चुका हूं कि लोग अन्न देने किम्मत । कि किमीने उसे देखा नहीं । सम्भव है. उस पहले अपमान देनेमे अपनी शान समझते हैं। भिग्वारीके पोटलीकी निगरानी करनेवाला हो ही न ? या उसकी हाथ पर एक पैसा रखने वाला अपनेको अच्छा समझ नज़र दृयी ओर हो। उठता है, यह मुझसे छिपा नही है । ख्याति प्रतिष्टाके निरंजन खुश है । खुश है कि ग्राज पहले ही प्रयत्नम लिए लोग लाखोंका दान करते हैं पर दीन-गवरीको वह सफल-मनोरथ हुश्रा है। पोटली दबाये वह चला जा मुट्ठी भर अन्न देने वाले कितने हैं '- यह मुझे मालूम है। रहा है-एकान्तकी खोंजमें जहां वह पोटली खोल सके। जित निकायमा जी
देख सके कि उसमें क्या है? कितना लाभ हश्रा है उस? जो बन, बनके बिगड़ रही हैं ! क्या वह भी इन्ही लहरो रास्नेसे हटकर, वह बैठ। पोटली ग्वालने । खुशी की तरह मिटने वाला है, इन्ही लहरोम ? विचार बढ़ रहे चमकती श्राखोस पोटलीको देवता हुआ।
_मर जाउंगा. चला जाउंगा किसीको पता तक न म्नानार्थियोंका दल अब भी जा-या रहा था, यहाचलेगा। कोई गने वाला जो नहीं है। यह भी क्या वहा ! जीवन ?
निरंजनकी उन्मुकता पर जमे वज्रपात हुश्रा ! यह नब ? जिन्दा ही क्यो न रहा जाय ? लेकिन चौक पहा!- 'पोटलीम बच्चा ? किनका बच्चा है?'