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अनेकान्त
[बर्ष ५
बध रहनेसे बरचा गुमसुम था
!
निरंजन
भूखा रोता है
देर तक बंधे रहनेसे बच्चा गुम-सुम था । सगी जो रुला रहा है रे, बच्चेको ? क्या माँ नहीं है इसकी ?' उन्डी हवा तो चैतन्यता लौट आई। रोने लगा वह ! निरंजनने दीनता पूर्वक उत्तर दिया-'मौ । इसकी निरंजन चुप !
मर चुकी है-बाबूजी। भूखा रोता है श्री श्रो.रे.. सोच रहा है-'बच्चा ? बच्चेका पिता हूं मैं ! उसका देख, बाबुजी कहते हैं चुप हो जा-बेटा। चुप रोते पिता हूं मैं ! उसका पोषण करना ही मेरे भान्यकी कठोर नहीं है, हाँ !" अाज्ञा है, वही मेरा जीवन है!'
पतिने पत्निकी ओर देखा, पनिका मुंह दयाई हो और बच्चा उसने गलेसे लगा लिया ! पर वह चुप रहा था - न हुआ निरंजन बोला-'भूखा है तू ? क्यों रे ? चल, बोलीं-कैसा सुन्दर बच्चा है?' मैं तुझे दूध पिलाऊँगा, अब मैं समझ गया हूं--जबरन और उसी समय, पतिने एक रुपया निरंजनकी ओर मुँह बन्द करनेसे कभी कोई चुप नहीं होता। जिसके बिना फेकते हुए कहा-'ले, बच्चेको दूध पिलाना !' काम न चले, उतना तो मिलना ही चाहिए न?'
और वे सब भागे बढ़ गए ! बच्चेको चुमकारता-पुचकारता वह सबक तक प्रागया! निरंजन विक्षिप्तकी भांति खडा, कभी बच्चेकी ओर पर बच्चेका रोना बन्द न हुश्रा!
देखता है, कभी चौंदनीमें चमकने रुपएकी तरफ ? न जाने कई स्त्रियों, जिनके माथमे उनके पति भी थे, जा रहे कौनसी स्मृति उसे दुख दे रही है ! थे घरको, स्नानसे निवृत्त होकर ! बच्चेको रोता देख स्त्रीने बच्चा रो रहा है ! पतिसे कहा-'कैसा रो रहा बच्चा ? बेचारे की मों मर बच्चेका पिता स्तब्ध है। पर अखि उपकी बह रही हैं, चुकी है-शायद ?
दिल उसका सिसक रहा है ! शायद निरंजनकी बडी दानपतिने स्त्रीका मनोभाव परख, निरंजनसे कहा-'क्यो वताको चुराई हुई छोटी-सी मानवताने पराजित कर दिया !
वासनाओं के प्रति-]-=-[-रचयिता-श्री ‘भगवन जैन
तुम क्यों मँडराया करती हो, मेरे जीवन के प्राम-पास? मैं तभी तुम्हारे वशम था
तुम मेरे मनमे बैठी थीं-- जब अपनेपन को भूला था !
मैं तुममें खुदको पाता था ! अध्यागम-वादसे रीता था---
थे एकमेक हम-तुम दोनो-- अन्धा था, लँगड़ा-लुला था ।
बस, एक प्रेमका नाता था। पर, अाज दिखाई देता है-अपने भीतर मुझको प्रकाश । मालूम न था, ले शत्रु-भाव, रोके थी नुम मेरा विकार ! उस दिन जब तुम मुस्काती थी,
अब मेरे मनमें जाग उठी-- मैं बनता था उसका भिक्षुक !
लोकोत्तम-मुखकी एक लहर । पर, अाज सत्यता इसमें है
अन्धी आँखोंमे लौट सकीहूँ मुम्हें त्यागनेका इच्छुक !!
फिर वही ज्ञानकी दृष्टि प्रखर " तुम खिलखिलकर हंसती हो जब, तब मैं होजाता हूँ उदास। । 'सुग्व समझे बैठा था जिसको वह था यथार्थमें सुखाभाम!
मैं जान चुका हूं भली-भाँति-दुनियाकी मायावी-बन्दिश ! हूँ देख चुका, सजनी ! तुममें-कितमा रस है, कितना है विष ? अब मुझे न बाँधी, रहने दो, अपने सारे असफल प्रयास' तुम क्यो मँडराया करती हो, मेरे जीवनके पास-पास ?