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अनेकान्त
वर्ष ५
पउमचरियकी रचना वि० सं० ६० में हुई है और १५ स्वप्न हैं । आवश्यक सूत्रकी हारिभद्रीय वृत्तिमें यदि जैनधर्म दिगम्बरश्वेताम्बर भेदों में वि० सं० १३६ के (पृ. १७८ ) लिखा है कि विमान और भवन ये दो स्वम लगभग ही विभक्त हुवा है-जैसा के दोनी सम्प्रदायवाले ऐसे हैं कि इनमें जिनमाताओंको एक ही पाता है। जो तीथंकर मानते हैं तो फिर कहना होगा के यह उस समयया है देववपेरत होकर पाते हैं उनकी माता पिान देखती है जब जैनधर्म अविभक्त था। हमें इस ग्रन्थमें कोई भी ऐसी ओर जो अधोलोक्स पाते हैं उनकी माता भवन देखती है। बात नहीं मिली जिसपर दोमेस वेसी एक समुदायकी परन्तु पउमचारयमे विमान और भवन दोनों ही स्वप्न कोई गहरी छाप लगी हो और जिसम्म यह निर्णय या मादेवीने एक साथ देखे हैं। जा सके कि विमलसूरि अमुक सम्प्रदाय के ही थे । बल्क
३-दूसरे उद्देसकी ३० वी गाथामें भगवानको जब उसमे कुछ बाते ऐसी हैं जो श्वेताम्बर-परम्पराके विरद जाती और
केवलज्ञान उपन्न हुश्रा, तब उन्हें 'अष्टकर्मरहित' विशेषण हैं और कुछ दिगम्बर-परम्पराके विद्ध। इसमें मालूम होता
दिया गया है और यह विशेषण शायद दोनों सम्प्रदायोकी है कि यह एक तीसरी ही, दोनोके बीचकी, विचार धारा थी। टिमे चिन्तनीय है। क्योंकि केवल ज्ञान होते समय पउमग्यि वशिष्ट कथन
केवल चार घातिक कर्मोंका ही नाश होता है, पाठोंका नहीं। १-इस प्रन्यके प्रारम्भमें कहा गया है कि भगवान्
४-दूसरे उद्देसकी ६५ वी गाथामें पृथ्वी, जल, महावीरका समवसरण विपुलाचलपर पाया, तब उनकी थग्नि. वाघु और वनस्पतिको स्थावर और द्वीन्द्रियादि खबर पाकर मगध-नरेश श्रेणिक वहाँ पहुँचे और उनके जीवोंको बस कहा है। यह दिगम्बर मान्यता है। श्वेताम्बर पूछनेपर गोतम गणधरने गमक्था कही' । दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार पृथ्वी, जल और बनस्पति ही स्थावर सम्प्रदायके प्राय: सभी कथा-ग्रन्थोंका प्रारम्भ इसी तरह होता हैं. अग्नि वाय और दीन्द्रियादि वस है। है। कहीं कहीं गोतम स्वामीके बदले सुधर्मा स्वामीका नाम भी रहता है। परन्तु जहाँ तक हम जानते हैं श्वेताम्बर ५-चौथे उदेस की ५८ वी गाथामें भरत चक्रवर्तीकी सम्प्रदायमें कथा-ग्रन्थोंको प्रारम्भ करनेकी यह पद्धति नही ६४ हजार गनियाँ बनलाई हैं । यह संख्या श्वेताम्बर है। उनमे पाम तौरसे सुधा स्वामीने जम्बूसे कहां-इस तरह परम्पराके अनुसार है, दिगम्बर सम्प्रदायके अनुसार कहनेकी पद्धति है। जैसे कि संघदासवाचकने वसुदेव हिंडिके
४ वमह गय मीह वरमिरि दाम" प्रथमांशमे कहा है, कि सुधर्म स्वामीने जम्बू प्रथमानुयोगगन
समिरवि भयं च कलसं९ च । तीर्थकर-चक्रबर्ति-यादववंशनरूपणागत वसुदेवचरित कहा।
सर१० मायरं११ विमाग१२ अन्य ग्रन्थोंमें भी यही पद्धति है ।
वग्भवणं १३ रयण १४ कुडग्गी ॥६२||-तृ० उद्देस २-जिन भवानकी माताको जो स्वम पाते हैं. उनकी ५ पद्मचरितमे दिगम्बर मम्प्रदाय के अनुमार स्वप्नांकी संख्या संख्या दिगम्बर सम्प्रदायमें १६ बतलाई है, जब कि श्वेताम्बर १६ कर दी गई है... सम्प्रदायमें १४ स्वप्न माने जाते हैं । परन्तु पउमचरियमें
"अद्राक्षीत् पोडशस्व'नानिति श्रेयोविधायिनः ॥"
वाटा १ वीरस्स पचरठाणं विउन्नगिरिमस्थये मणभिगमे ।
तृतीय पर्व, श्लो० १२३ __ तह इंदभूइकहियं सेणियरएणस्स गामे ॥
६ अइ अट्ठकम्मरहियस्म तस्स भाणोवयोगजत्तस्म । २ श्रेणिकप्रश्नमुद्दिश्य सुधर्मो गणनायकः।।
सयलजगुजोयकर केवलणाणं समप्यराण ॥३०॥ यथोवाच मयाप्येतदुच्यते मोक्षलि मया ।। -क्षत्रचूडामणि ७ पदवि-जल जलण-मारुय-वएस्सई चेव थावरा भणिया । ३ तत्थ तार सुहम्मसामिणा जंबुनामस्स पढमा सुयोगेतित्थयर- वेइंदियाइ जाव उ, दुविहतसा सणिण इयरे वा ॥६५॥
चक्कवहि-दमार-वंसपरू-बणागयं वसुदेवचरियं कहियं' ति ८ चउसटिसहरमाई जुबईगां परमरूबधारीणं । तस्सेव पभवो कहेयन्यो, तप्यभवस्स य पभवस्स त्ति । बत्तीसं च सहस्सा राईणं बदमउडाणं ॥५८|