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________________ किरण १-२] पउमचरिय और पद्मचरित चक्रवर्तीकी १६ हजार रानियाँ होती हैं। ममयने और सम्प्रदाय मोहने उन्हें मज़बृत बना दिया। ६-उमरियके दूसरे उद्देसमें कहा है कि भगवान् हमारा अनुमान है कि शायद यह तीसरी विचारधारा महावीर बाल-भावसे उन्मुक्त होकर तीस बरसके होगये और वह है जिसका प्रतिनिधित्व यापनीय संघ करता था और फिर एक दिन संवेग होनेमे उन्होंने प्रवज्या ग्रहण जो अब लुप्त हो गया है और पउमचरिय शायद उसीके करली । इसमे उनके विवाहित होनेकी कोई चर्चा नही है द्वारा बहुत समय तक सुरक्षित रहा है। इस बातकी पुष्टि और कुमारावस्थामे ही दीक्षित होना प्रकट किया है। बीसवे महाकवि स्वयंभूके उमचरिय' सं होती है जो यापनीय उद्देसकी गाथा ५७-५८ में भी यही ध्वनित होता है कि संघके थे और जिन्होने अपने समक्ष उत्तरपुराणानुमोदित मल्लिनाथ, अरिष्टनेमेि पार्श्व, महावीर और वासुपूज्य ये पाच रामायणकथाके रहने हुए भी पउमचरियका ही अनुपरण तीर्थकर कुमारकालमें ही घरमे निकल गये और शेष तीर्थ- किया है। कर पृथ्वीका राज्य भोगकर निकान्त हुए। कहनेकी परिशिष्ट आवश्यकता नहीं कि यह उल्लेख दिगम्बरपरम्पराके अनुकूल उमचरिय और पद्मचरितक कुछ छायानुवादरू। उद्धरण है। यद्यपि अभी अभी एक विद्वान्मे मालम हुआ है कि मुञ्चति लोयमाथे रावणपमुहा य वखसा सन्वे । श्वेताम्बर सम्प्रदायके भी एक प्राचीन ग्रन्थ 'प्रावश्यकनियुनि' वस-लोहिय-मसाई-भक्खणपाणं क्याहारा ॥ १० ॥ में महावीरको अविवाहित बतलाया है। किर रावणस्म भाया महाबलो नाम कुंभयण्णो त्ति । परिश्रम करनेमे इस तरहकी और भी अनेक बातोंका छम्माम विगयभश्रो संजासु निरंतरं सुयह ॥ १०८॥ पता लग सकेगा जिनमेमे कुछ दिगम्बर सम्प्रदायके अधिक जइ वि य गएमु अंग पलिजइ गरुयपन्वयसमेसु । अनुकूल होगी और कुछ श्वेताम्बर सम्प्रदायके । तेल्लघडेसु य कण्णा पूरिजंने सुयंतस्स ॥ १० ॥ इन सब बातोंये हमारा झुकाव इस तीसरी विचार- पडुपडहतूपसदं ण मुणइ सो सम्मुहं वि वजतं । धाराके विषयमें इस ओर होता है कि वह उस समयकी नय उर्दुइ महप्पा सजाए अपुण्णकाल म्मि ॥ ११०॥ है जब दिगम्बर और श्वेताम्बर सम्प्रदायोंके मत-भेद व्यव- अह उदियो वि संतो असणमहा(णामह)घोरपरिगयमरीसो। स्थन और दृढ नहीं हुए थे। उन्होने आगे चल कर ही धीरे पुरो हवेज जी सो कुंजरमहिमाइणो गिलइ ॥ ११॥ धीरे स्थायित्व और दृढत्व प्राप्त किया है। पहले वे किसी काऊण उदरभरणं सुरमाणुसकुंजराइबहुपसु । ग्रंथके पाठभेदोंके समान साधारण मतभेद थे. परंतु पीछे पुणरवि मेजारूढो भयरहियो मुयह छम्मामं ॥ १२॥ अनं पि एव सुब्वह ह इंदो रावणंण मंगामे । पद्मचरितम रविष्टेगने यह सच्या भी अपने मम्प्रदायक जिणि ऊण नियलबद्धो लंकानयरी समाणीनी ॥ ११३ ॥ अनुसार मशोधित करके ६६ हजार कर दी है को जिणि य समन्थो इंदं ममरामरे वि तेलोके । 'पुग्न्त्रागा महागि नवनि: पाभन्विताः।" जो सागरपेरंन जंबुद्दीवं मयुद्धरह ॥ ११४॥ १० च० श्लो०६६ एरावणो गहंदी जस्स इ वजं अमोहपहरन्थं । मुग्वटदिन्नाहागे अगुट्यमयलवलेहंग । नस्स किर चिनिएण वि अन्नो वि भवेज मसिरामी ॥११॥ उम्मुक्कचालभावी तीमट वरिमा जियो जात्रो सीहो माण निहलो माणेण य कुंजरो जहा भग्गो। अह अन्नया कयाई मंवेगपंगे जियो मांगयदोमा । नह विवरीयपय थ कई हि रामायणं रइयं ॥ १६ ॥ लोगनियाकिएणी पध्वजमवागी वोगे ॥ ३० ॥ अलियं पि मन्वमेयं ज्ववत्तिविरुद्धपञ्चयगुणेहि । निहतकण्यवरगा मेमा तित्थकग समक्वाया। न य मदहति पुरिसा हवंति जे पंडिया लोए ॥ १७ ॥ महा अग्नेिमी पामो वीगे य वासुपजो य ।। ५७ ॥ -पउमच० २ उद्देश एप कुमाग्मोहा गेट्टायो गिगाया जिग्णवाग्दिा । ४ देवी, भेग महाकवि स्वयभु और त्रिभुवन स्वयभु' गमा विहरायागो पहई भोत्तण गिवंता ॥ ५ ॥ शीर्षक लेन ।
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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