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अनेकान्त
[वर्ष ५
भागे चौदहवें श्लोक में इस प्रकार लिखा है- स्पष्टताकी दृष्टि से धवला, जयधवलाके मुकाबले में महाबंधको तत्पट्टे धरसेन कस्समभव सिद्धान्तगः सेंशुभः ? महाधवल कहाजाना प्रारंभ हुआ होगा। एक बात यह भी तत्रट्टे खलु वीरसेनमुनियो यश्चित्रकूटे परे। होगी कि जब परंपरा-शिष्य धीरसेनस्वामी जिनसेनस्वामीकी येलाचार्यसमीपगं वृततरं सिद्धान्तमल्पस्य ये । रचना अपने अपने विषयोंका विशेष प्रकाश डालनेके वाटे चैत्यवरे द्विसप्ततिति सिद्धाचलं चक्रिरे ॥१४॥ कारण धवल तथा जवधवल कही गई, तब उनके भी
इसके साथमें यह भी लिखा है "संवत् १६३७ अत्यन्त पूज्य मूल-सूत्रकर्ता भूतबलि स्वामीकी कृतिको आश्विनमासे कृष्णपक्षे अमावस्या तिथौ शनिवासरे महाधवल कहनेमें वास्तविकताके निरूपसके साथ साथ शिवदासेन लिखितम्"
भक्तिका भी भाव रहा होगा। इस महाधवल नामका प्रयोग पं० टोडरमलजीने महाबध और धवला टीका ये धरसेनाचार्यकी परंपरा गोमट्टसार कर्मकांडकी बडी टीका पृ० ३१४ मे भी किया है। की चीजे हैं. कारण धरमेनस्वामीने व्याख्या-प्रज्ञप्ति तथा ___ यथा-तहां गुणस्थान विषै पक्षान्तर जो महाधवलका दृष्टिवाद अंगके अशरूप महाकर्मप्रकृतिप्राभृतको अपने दूसरा नाम कषायप्राभृत(?)ताका कर्ता जो यतिवृषभाचार्य शिष्यों पुष्पदंत-भूनर्बाल को पढाया जिसको पढ़कर उन ताके अनुसार ताकरि अनुक्रमतें कहिए हैं।"
मुनियुगलने षटखढागम शास्त्रकी रचना की । जयधवला जान पड़ता है सिद्धान्तशाखोंका साक्षात् दर्शन न होने की परंपरा षटखंडागमसे जुदी है। गुणधर प्राचार्यने के कारण पं० टोडरमलजीने कषायप्राभृतको महाधवल कषायप्रामृतका उपदेश प्रायमंच तथा नागहस्तिको दिया, लिख दिया है । वास्तवमे कषायप्राभृत पर लिखी गई टीका उनसे अध्ययन करके यतिवृषभाचार्यने चूर्णिसूत्रोंकी को जयधवला कहते हैं।
रचना की। इन चूर्णिसूत्रोंपर वीरसेनाचार्य नथा जिनमेनामहाबन्धमें अनुभागबन्धके अंतमे महाबन्धका उल्लेख चार्यरचित टीकाको 'जयधवला' कहते हैं। पाया है यथा---
षट खंडागमके पांच भागोंकी श्लोकसंख्या छह हजार "सकलधरित्री विनुत प्रकटित यधीशे मल्लिकन्वे वेरिसि ।
है। इनमें प्रारंभक १७७ सूत्रोंकी रचना तो पुष्पदन्त सत्पुण्याकर महाबंधद पुस्तक श्रीमाधनंदिमुनिपति गिचल"
प्राचार्यने की बादमें संभवत. उनका स्वर्गवास हो गया, महाबन्धके रचयिता भूनबलि प्राचार्य हैं, इस बातका
इससे शेष सूत्रोंकी रचना भूतबलि स्वामीने की तथा निश्चय धवला टीकाम पाए हुए निम्न उल्लेखसे हो जाता
संपूर्ण महाबंध भी भृत बलिस्वामीकृत हैं। प्राचार्य इंद्रहै, जिसमे बतलाया है कि इस बातका खुलासा वर्णन
नंदि महाबधकी श्लोक संख्या त्रिंशतसहस्र बताते हैं. भूतबलि भट्टारकने महाबन्धमे किया है :
किन्तु ब्रह्म हेमचंद्र अपने श्रुतस्कंधमें इसका प्रमाण ४० "जत बधावहाण त चावह । पयाडबधा हजार श्लोक लिखते हैं। यथाहिदिबधो, अणुभागबंधा, पदेसबंधो चेदि । एदेसि सत्तरिमहस्स धवलो जयधवलो माट्टिमहम्स बोधव्यो चदुण्डं बंधाणं विहाणं भूदलिभडारएण महाबंधे महबंधो चालीसं सिद्धंनतयं अहं वंदे। सप्पवंचेण लिहिदं ति अम्हेहि एत्य ण लिहिदं।" इस भिन्न २ श्लोकसंख्याकी प्रतिपादनाका कारण यह -धवला अ० पृ० १२५६
प्रतीत होता है कि, इंद्रनंदि प्राचार्यने महाबंधके विद्यमान महाबन्ध-श स्त्रका महाधवल नाम क्यों प्रचारमे पाया
अक्षरोंकी गणना करके सख्या निर्धारित की । ब्रह्म हेमचंद्र यह भी बात चिंतनीय है। हमे तो यह प्रतीत होता है कि ने सांकेतिक अक्षरोंको पूर्ण मानकर गणना की, अत. धवला और जयधवला टीका द्वारा जिस प्रकार मूल सूत्र- गणनामें भेद हो गया । बात यह है कि महाबंधमे सांकेकारके भावको स्पष्ट करने की आवश्यकता हुई, वैमी श्राव. तिक संक्षिप्त भाषाका बहुत अधिक उपयोग हुअा है। जैसे श्यता महाबंधके बारेमें नहीं हुई; क्योंकि वह स्वयं भूतबलि ओरालियसरीरको 'पोरा. मात्र लिखा है 'वेगुच्चियसरीर' भट्टारकने अत्यन्त खुलासारूपसे रचा है। अत: विषयकी को 'वेगु०' मात्र लिखा है। इंद्रनंदिने श्रीरा० को दो अक्षर