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महाधवल अथवा महाबन्ध पर प्रकाश (ले०-५० सुमेरचन्द्र जैन दिवाकर बी० ए०, शास्त्री न्यायतीथे )
[ इस लेख में जिम ग्रन्थगजका सामान्य परिचय दिया गया है वह अतिप्राचीन जैनसिद्धान्त-शास्त्र है, जो बहुत अर्मे मे मृडचिद्रीकी एक कालकोठर्गमे बन्द था, जनता उसके दर्शनोंको तरमती थी और उसका परिचय पानेके लिए उत्सुक थी । वाँसे उमके उद्धारका प्रयत्न चल रहा था परन्तु समाजके दुर्भाग्यवश सफलता नहीं मिल रही थी। हाल में भाग्यने पलटा खाया, सत्प्रयत्नद्वारा अधिकारी वर्गका हृदय परिवर्तित हुश्रा और अन्.को मृडबिद्रीक भट्टारक श्री चारुकीतिजी पंडिताचार्य, श्री डी. मंजेय्या हेगड़े बी० ए० एम० एल० मी. धर्मस्थल, श्री रघुचन्द्रजी बल्लाल मगलौर आदि पंचोकी कृगसे दिवाकरजी को ग्रन्य-प्रतिलिपिकी अनुज्ञा प्रास होगई और उन्होंने एक वर्षम ही पूरी नवल कराकर अपने पाम मॅगाली । उमीक फलस्वरूप यह लेख ।दवाकर ने मेरे अनुरोधपर प्रस्तुत किया है, जिसके लिए मैं आपका आभारी हूँ । यहापर मैं इनना और भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि लेख मुझे कानपुर परिपद्-अधिवेशनमे ता. २५ अप्रेलको दिया गया था परन्तु उमी दिन रेलवे स्टेशनसे मरा बोक्स गुम हो जानेके कारण प्रस्तुत लेख दूसरे कितने ही बहुमूल्य साहित्य के साथ नष्ट हो गया था। लेखकमहोदयने फिरसे परिश्रम करके इसे जल्दाम तय्यार किया है, ऐसा वे सूचित कर रहे हैं । साथ ही, यह भी प्रकट कर देना चाहता हूँ कि मूल ग्रन्थके सामने न होने श्रादिसे लेम्बके सम्पादनम अपनी यथष्ट प्रवृत्ति नहीं होमकी है । कई स्थानोपर कुछ उलभने पैदा हुई, जिन्हे लेखक की जिम्मेदारीपर ही छोड़ दिया गया है । मूल ग्रन्थ अनुबाद-मांहत शीघ्र प्रकाशित होने के योग्य है-कागजको वर्तमान समस्या, जमकी ओर लेखकजीने मकेत किया है, उनमें बाधक न होनी चाहिए । सिद्वान्त-ग्रन्थोंके उद्धार-कार्यका कितना ही फण्ड अवशिष्ट सुना जाता है, उसे काममे लाना चाहिये।
-सम्पादक शवल, जयधवल तथा महाधवल नामक सिद्धान्त ख्यान है। इन छह बंडोमेंसे महाबन्धको छोडकर शेष
'ग्रन्थोका नाम सपूर्ण दिगम्बर जैनसमाजमे अत्यन्त पांच खंडोपर जिस टीकाकी रचना वीरसेन प्राचार्यने की श्रद्धा-पूर्वक लिया जाता है। वैसे तो संपूर्ण जैनवाग्गगा भग- वह 'धवला' टीका कही जाती है । षटमंडागमके छठे चान वर्धमानस्प हिमाचल मे अवतरित होनेके कारण बंडको जो महाबन्ध है, जैनसंसारमे महाधवल' कहते हैं। पूजनीय है, वंदनीय है. किन्नु उपरोक्त सिद्धान्तत्रयका किन्तु जहां तक ग्रन्थ परम्पराका सम्बन्ध है वहां तक भगवानमे विशेष सन्निकट सम्बन्ध है, इससे उनके प्रति 'महाबन्ध' का 'महाधवल' नाम दृष्टिगोचर नहीं होता है। अधिक पादरका भाव होना स्वाभाविक है।
'महाधवल शब्दका प्रचार अधिकसे अधिक सं०१६३० मामान्यतया यह समझा जाता था कि महाधवलके
तकके लेखमें पाया जाता है। कारंजाके प्रख्यात शास्त्रभंडार मदृश ही जयधवल नथा धवल शास्त्र प्राचीन है किन्तु
मे 'प्रतिक्रमण' नामकी एक पोथी है उसमे निम्नलिखित अब इन ग्रन्थोके परिशीलनमे यह बात स्पष्ट हो गई है कि
उल्लेख पाया जाता हैमहाधवलको छोडकर धवल तथा जयधवल मूल ग्रन्थ धवलो हि महाधवलो जयधवलो विजयधवलश्च । नहीं हैं. किन्तु ये टीकायों के नाम है। महाधवल शास्त्र ग्रंथा श्रीमद्विरभी प्रोक्ताः कविधातरस्तस्मात ॥१३॥ मात्र मूल सूत्ररूप में है । जीवस्थान, तुल्लकबंध, बंध- इसमे धवल, जयधवल तथा महाधवल के साथ साथ स्यामिव वेदना, वर्गणा तथा महाबन्ध इन छह विषयों विजयधवल का भी उल्लेख किया है। यह विजयधवल का वर्णन करने वाला प्रागमपाहित्य पटग्वंडागमके नाम ग्रन्थ कौन है ? इस पातका अनुसंधान होना जरूरी है।