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किरण १२]
महाधवल अथवा महाबंधपर प्रकाश
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गिना होगा, किन्तु ब्रह्म हेमचंद्रने उसे • अक्षररूपसे गिना श्रुतकेवली १०० वर्षमें हुए । पचान विशाखाचार्य, प्रौष्टिल, होगा यही कारण है कि ग्रंथके प्रमाणका उल्लेख करनेमे त्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थदेव, तिषण, विजयाचार्य, मतभेद होगया. वास्तवमें वह दृष्टिकोणका ही भेद है। बुद्धिल , गंगदेव तथा धर्मसेन थे ग्यारह प्राचार्य परिपाटी इस ग्रंथमें हजारों बार कर्मप्रकृतियों के नामोंका पुनः पुनः क्रमसे ११ अंग १० पूर्व के पाठी हुए। ये शेष नार पूर्वोके प्रयोग हा है इसलिए ग्रंथकारने संक्षिप्त सांकेतिक शैली एक देशके भी ज्ञाता हुए। इसमें १८३ वर्ष बीत गए। में लिखनेका मार्ग अंगीकार किया, ऐसा प्रतीत होता है। बादमें नज्ञत्राचार्य, जयपाल, पांडुस्वामी, ध्र वसेन तथा
इस तरह महाबथके चालीसहजार श्लोक गिनने पर कंसाचार्य ये पांच प्राचार्य परिपाटी क्रमसे १५ अंग तथा भूतर्बाल स्वामीकी संपूर्ण कृति ३७७ सूत्रोंसे न्यून ४६ १४ पूर्वोक एकदेशके ज्ञाता हुए । इसमें १२३ वर्ष और हजार श्लोक प्रमाण माननी होगी।
व्यतीत हुए। बादमें सुभद्र, यशोभद्र, यशोबाहु तथा महाबंधमें प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशबंधका लोहार्य हुए, इनमे १७ वर्ष बीते। बादमे नदिसंघीय वर्णन किया गया है। अत: 'महाबध' यह नामकरण अन्वः प्राकृन-पहावलीके अनुसार इयंगधारी' -एकांगके धारक र्थ है। प्रकृति, स्थिति, अनुभाग तथा प्रदेशबधका यथाक्रम अर्हदलि, माघनदि, धरसेन, पुष्पदन्त, भृतबाल इनका वर्णन किया है। इसीसे मालूम होता है कि उमास्वामी समय क्रमश: २८+२१+१३+३०+२०११८ वर्ष प्रमाण श्राचार्य ने भी तत्वार्थसूसमें 'प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्त- रहा। इस प्रकार वीरनिर्वाणके ६८३ वर्ष बाद भूतबलि द्विचयः' (अध्यायमसूत्र३) यह पाठक्रम अंगीकार किया है। स्वामीका उल्लेख प्राप्त होता है । ६२+१००+१३+१२३
महाबंधके रचयिता- इस ग्रन्थराजके रचयिता +९७१ ११८८६८३)। इस पट्टावलीमें दो वर्षकी भूलका भूतबलि स्वामीका कुछ भी इतिहास महाबंधमे उपलब्ध उल्लेख प्रो. हीरालाल जीने अपनी धवला प्रथमम्बण्डकी नही होता है। अन्य साधनोमे ज्ञात होता है कि भगवान भूमिकाके पृ०२० पर किया है, किन्तु इन्दौर, प. महावीर स्वामीके निर्वाणके अनन्तर ६२ वर्षके भीतर खूबचन्द जी शास्त्रीके पास जो पट्टावलीकी प्रति है, उसमे गौतमस्वामी, सुधर्माचार्य तथा जैवस्वामी ये तीन केवली भूत्व दूर होजाती है। परिपाटी-क्रमसे (Succes-V-हुए। मामान्यतः 'छह अट्ठारह वामे तेवीस वावग वास मुगिरणाहं (५०) लोगोंकी यह धारणा है, कि जंबूस्वामी अतिम केवली हुए दम गाव अटुंगधरा वास दुसदवीस सधेसु ॥११॥ हैं, किन्तु यह कहना अनुबद्ध केवलीकी अपेक्षा ठीक कहा यहां काटकमें जब (५०) देकर मख्याका खुलासा जा सकता है। केवली पामान्यकी अपेक्षासे कहा जाय तो किया गया है तब वावणके स्थान पर वरण' पाठ होना
धर केवलीको अंतिम केवली मानना होगा। तिलोय- चाहिए । इस तरह दो वर्षकी भूल का भ्रम दूर होजाता है। पएणत्तिके चौथे अध्यायमें लिखा है कि अंतिम केवली इस पहावलीके अनुसार भूतबलि श्राचार्यका समय विक्रम श्रीधर हुप यथा
संवत् (६८३-४७०२५३) एवं ईसवी (६८३-५२७ : जादो सिद्धो वीरो तदिवसे गोदमो परम-णागी। १०६) श्राता है। जादे तस्सि मिद्धे मुधम्मसामी तदो जादो ॥१४७६।। धवला टीकामें जो षटविंडागमके प्रारंभके बारेमें कथा तम्मि कदकम्मणासे जंबूमामि त्ति कंवली जादो। दी है, उसमे ज्ञात होता है कि धरसेन प्राचार्य के पास दो तत्थ वि मिद्धिपवण्णे केवलिणो गास्थि अणुबद्धा १५७७ मुनिराज श्रुतरक्षण के लिए भेजे गए, उनमें ग्रहणशकि ईडलगिरिम्मिचरिमो केवलगाागीममिग्धिगे सिद्धो तथा धारणाशक्तिकी विशेषता थी। वे मुनियुगल भूतबलि चारणरिसीसुचरिमोसपासचंदाभिधाणो य||१४७६।। और पुष्पदंतके नामसे ख्यात हुए। महाबधके अध्ययनमे
उपरोक्त तीन अनुबद्ध केवलियोंके पश्चात विष्णु, नंदि- यह बात भली प्रकार समभामे श्रा जाती है कि भृतबलि मित्र, अपराजित, गोवर्धन तथा भद्रबाहु ये पाँच अनुबद्ध स्वामीकी धारणा नथा ग्रहण-शकि कितनी असाधारण