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________________ ४०८ अनेकान्त [वपं ५ कोटिकी रही होगी? रचना करने का अवसर ही नहीं दिया। यही बडा सौभाग्य भूतबलि स्वामी 'अत्यन्त विनयवान' 'शोलरूपमाला' रहा कि पुण्यचरित्र भतबलि स्वामीने काफी विस्तृत तथा से विभूषित थे । वे 'देश, कुल, जातिसे विशुद्ध' थे। वे महत्वपूर्ण रचना करके अनुपम जिनवाणीकी रक्षा की, संपूर्ण कलात्रोंमे भी निष्णात थे । वे मंत्रशास्त्रके भी जिम्मे पढ़कर हृदय श्रद्धासे उनकी परोक्ष वंदना करता है। प्राचार्य थे, क्योंकि धरसेन प्राचार्यने उनको साधनार्थ जो दुःख है कि ऐसी पूजनीय विभूनियोंके बारेमे व्यक्तिगत मंत्र दिया था, वह अशुद्ध था और उसकी शुद्धि करके उनने जीवनको अधिक प्रकाशमें लानेवाली सामग्रीका अभाव है। मंत्रकी साधना की थी। मंत्रके अधिष्ठाता देवताने प्रसन्न होकर संतोष इस बातका है कि जिस जिनबाणीके पवित्र रससे जब अपनी सेवाएँ अर्पित की, तो इनने किसी प्रकारको भी उनका हृदय लबालब भरा हुआ था, वह पखंडागम इच्छा नहीं प्रगट की, इससे इनकी उज्वल निस्पृह मनो- और विशेषतया महाबंधके रूपमे हमारे सामने विद्यमान है। वृत्ति स्पष्ट होती है। ये अपने गुणोके कारण देवताओं द्वारा महाबधकी भाषा शुद्ध प्राकृत है और इसमें धवला, बंदित थे। जब धरसेन श्राचार्य ने इनको महाकर्मप्रकृति जयधवलाके समान 'क्वचित् प्राकृतभारत्या क्वचियंस्कृतप्राभृतके उपदेशका कार्य श्रमाढ सुदी को पूर्ण किया, मिश्रया' की शैली नही अंगीकार की गई है । जैसा क तब देवताओंने भी इस सफलतापर हर्ष व्यक्त किया था, पहले कहा जा चुका है, स पूर्ण ग्रन्थमे बंधके भेद चतुष्टय तथा भूतजातिके देवोने इनकी पुष्पोसे पूजा की तथा शख पर श्रोध तथा श्रादेश-- सामान्य तथा विशेषकी अपेक्षामे तूर्य आदि वाद्योग मकार किया । इसे देखकर धरसेन विवेचन किया गया है। संपूर्ण ग्रंथका पर्यालोचन करनेपर स्वामीने उनका अन्वर्थ नाम भूतबलि रवखा । इस गुरु ज्ञात होगा, कि ग्रंथमे कहीं भी कोई ऐतिहासिक उल्लेम्ब दत्त नामके पूर्व में इनका क्या नाम था, यह जाननेके अभी नहीं पाया जाता है। तक साधन उपलब्ध नही हुए। कही २ श्राचार्य महाराजने भिन्न परंपराका संकेत यं महान गुरुभक्त थे तथा गुरदेवके अनुशासनका अवश्य किया है । कालानुगमन प्रदेशबंधका वर्णन करने पूर्णतया पालन करते थे। इसका एक प्रमाण यह है कि हुए ताडपत्र २१३ में लिखा हैप्रथममाप्ति होने पर प्राचार्य धरसन स्वामीने उसी दिन . दिन अवट्टिदबंधकालो जह० एम०, उक्क० पवाइज्जनेगा अथवा इंदनं दिकृत श्रुतावतारको अपेक्षा दुसरे ही दिन उवदेमंग पत्रकारमसमयं, अगण पुग स्वदेसरण वहांये रवाना होनेका आदेश दिया और इस प्राजाका परागारमसमय ।"-अवस्थित बंधका काल जघन्यमे एक उनने पालन किया । वैसे जिन गुरुदेवके पादपद्मोके समीप समय है । उत्कृष्टमे पूर्वाचार्यके उपदेशकी अपेक्षा ११ समय भतबलि तथा पुष्पदन्त स्वामीको अनुपम श्रागमअमृत है तथा अन्य पटेसाठी प्रोता है, तथा अन्य उपदेशकी अपेक्षा १५ समय प्रमाण है।" पान का सौभाग्य मिला था, कमसे कम उन गुरुदेवके पास इसप्रकार यहां उ'कृष्ट बकाल में एक मत समयका और वर्षाकाल बिताने की उनकी इच्छा का होना स्वाभाविक था मग १५समयका बताया है। यह बात भी ध्यान देने योग्य क्न्तुि गुरुकी श्राज्ञा अनुल्ल धनीय समझ उनने विनीत है कि भिन्चर परंपरागो'उपदेश' शब्दके द्वारा वताया गया तथा अनुशासनप्रिय शिष्यवृत्तिका पूर्ण परिचय दिया। है, जिससे मौलिक उपदेश-परंपगपर प्रकाश पडता है। षट खंडागमके १७७ मूत्रोकी ही रचना पुष्पदन्त संपूर्ण प्रथम २१ ताडपत्र हैं। इनमें से लेकर २७ स्वामीने की। बादमे शेष रचना केवल भूतबलि स्वामीने ताडपत्र पर्यन्न मन्चमपंजिकाजी महाबंधको छोड शेप की। इस प्रसग यह देव दुर्विपाकको सोचकर हृदयमे परग्बडागमके पाच विषयस्थल पर प्रकाश डालती है। यताप होना है कि जिनशासनकी विशेष रक्षार्थ निमित्त महाबंधना प्रारंभ जिम नाटपत्र नं. २८ से होना था शास्त्रके महानज्ञाता धरमेन अाचायने भाबलि तथा पुप दुर्भाग्यसे वह गायब है, अतः ग्रन्थका प्रारंभ किस शैली दन्तको अपने अधिगत विशिष्ट शास्त्रमे पारंगत किया से प्रार्य महाराजने किया, यह नहीं कहा जा सकता है। किन्तु ऋरकालने पुष्पदंत स्वामीको १७७ भूत्रोंसे अधिक एक नाइपत्रमं करीब २०० श्लोक प्रमागा ग्रन्थका लोप
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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