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________________ किरण १२] महाधवल अथबा महाबंध पर प्रकाश ४०६ होगया होगा। संपूर्ण ग्रंथमें १४ ताड़पत्र पूर्णतया नष्ट हो एण वेदणाखंडस्स आदीए मंगल तत्तो प्राणेदूण उवि. गये तथा कहीं-कहीं और अंश भी नष्ट हो गया । इसप्रकार दस्स णिवत्तविरोहादो।......" बहुत सा महत्वपूर्ण अंश नष्ट होजानेसे अनेक स्थलों पर इसके प्रागे टीकाकार वीरसेनाचार्य लिखते हैं कि---- पूर्णतया सम्बन्ध-विच्छिन्न होने के साथ साथ रस भंग हो वेदना, वर्गणा तथा महाबन्ध इन तीन खंडों में वह किस जाता है, लेकिन किया क्या जाय ? शास्त्रोंकी रक्षाके विषय खंडका मंगल है? तीनों खंडोंका मंगल है। यह कैसे जाना में हमारी लापरवाहीका ही यह सब परिणाम है। जाय ? क्योंकि वर्गणा तथा महाबन्धके आदिमे मंगल नहीं प्रकृतिबंध ताडपत्र ५० तक पाया जाता है। स्थिति- रचा गया है। मंगलके विना भूतबलि भट्टारक ग्रन्थका बंध ११३ पत्र पर्यन्त है। अनुभागबंध १७० पत्र पर्यन्त प्रारम्भ नहीं करते, अन्यथा उनको अनाचार्यस्व दोष है तथा प्रदेशबंध २१६ पृष्ठ पर्यन्त है। संपूर्ण ग्रंथमें २१६ का प्रसंग माता है। यथाताड़पन हैं, जिनमेंसे पंजिकाके २७ तथा विनष्ट १४ पत्रोंको ____ "उवरि उच्चमाणेसुतिसु खंडेसु कस्सेदं मंगलं ? घटानेपर शेष ग्रंथ १७८ ताडपत्र-प्रमाण रहता है। तिएणं खंडाणं । कुदो ? वग्गणामहाबंधारणमादीए मूल ताडपत्रीय प्रति कानडी लिपिमें हैं, उसकी देव. मंगलाकरणादो। ण च मंगलण विणा भूदलिभटानागरी लिपिमे भी एक प्रति मूडबिद्रीके सिद्धान्तमंदिरमें रो गंथस्स पारभदि, तस्स अणाइरियप्पसंगादो।" विद्यमान है। हमने मूडबिद्रीकी ताइपम्रीय प्रतिके अनुसार (धवला हस्तलिखित सिवनी प्रति पृ० ७३४,७५५,७५६) देवनागरी प्रतिका ३ विद्वानोंके द्वारा संतुलनका कार्य कराया इससे कमसे कम इस बातकी प्रसन्नता है कि महाबंध और फिर शुद्ध प्रतिसे नकल कराई और पश्चात् फिर मूल का मंगलाचरण बननेके योग्य सामग्री वेदनाखंडके आदि प्रतिसे मिलान कराया। इस प्रकार हमारे पास जो मूल ग्रंथ में निबद्ध है और वह भी गौतमस्वामी-रचित मंगलाचरण की नकल आई, वह मातृप्रतिके पूर्णतया अनुरूप है, इस इस प्रकार किया गया है:बातपर अविश्वास करनेकी कोई बात नहीं है। णमो जिणाणं ||१|| णमो प्रोहि जिणाणं ॥२॥ णमो हां, तो ग्रन्थका प्रथम ताइपत्र नष्ट होगया, तब इसका परमोहिजिणाणं ॥३॥ णमो सम्बोहि जिणाणं ॥४॥ णमो श्रारम्भ कैसे किया गया, यह बात जाननेके साधनोंका एक अणंतोहि जिणाणं ॥१॥ णमोमोबुद्धीणं ॥६॥ णमो प्रकारमे अभाव है। इससे सामान्यतया यह ख्याल होता था बीजबुद्धीणं ॥७॥णमोपदाणुसारीणं ॥८|| णमो संभिरणकि ग्रन्थका मंगलाचरण भी नष्ट होगया होगा, किन्तु यह सोदराणं ॥६॥ यमो उजुमदीणं ||१०|| णमो विउलमदीण प्रसन्नताकी बात है कि भूतबलि स्वामीने महाबन्ध ॥११॥ णमो दसपुम्वियाणं ॥१२॥ णमो चोद्दसपुब्बियाणं का कोई स्वतन्त्र मंगलाचरण नही बनाया, किन्तु उनने ॥१३॥ णमो अटुंगमहाणि मित्तकुसलाण ॥१६॥ ण पो वेदनाखंडके प्रारम्भमं जो मंगलरचना की वही वर्गणा तथा विउब्वगपत्ताणं ॥१५॥ णमो विजाहराणं ||१६|| णमो महाबन्धका मंगल समझना चाहिए, ऐसा वीरसेनस्वामीने चारणाणं ॥१७॥ णमो पण्हसमणाणं ||१८|| णमो श्रागाअपनी धवलाटीकामें बताया है। यह भी विशेष बात है सगामीणं ||१६|| णमो आसीविसाणं ॥२०॥ णमो दिछिकि वह मंगलाचरण स्वयं भूतबलि स्वामीके द्वारा रचित विसाणं ॥२१॥ णमो उग्गतवाणं ॥२२॥ णमो दित्ततवाणं नहीं है, उनने गौतमस्वामीके द्वारा रचित 'महाकम्मपयडि. ॥२३|| णमो तत्ततवाणं ॥२४॥ णमो महातवाणं ॥२४॥ पाह' के धादिमे रचित मंगलसूत्रोंको उठाकर वेदनाखंड णमो घोरतवाणं ॥२६॥ णमो घोरपरकमाणं ॥२७॥ णमो के प्रारम्भमे स्थापित किया है। अत: वेदनाखण्डकी अपेक्षा घोरगुणाणं ॥२८|| णमोऽघोरबम्हचारीणं ॥२६॥ एमो वह मंगल अनिबद्ध कहा गया है। वीरसेनस्वामी कहते हैं- प्रामोसहिपत्ताणं ॥३०॥ णमो खेलोसहिपत्ताणं ॥३१॥ "महाकम्मपयडिपाहुडस्म कदिश्रादिचउवीमणियोगा- णमो जल्लोसहिपत्ताणं ॥३२॥ णमो विट्ठोसहिपत्तागण ॥३३॥ वयवस्स आदीए गोदमसामिणा परूविदस्स भूदबलिभडार- णमो सम्बोसहिपत्ता ॥३४॥ यामो मणबलीणं ॥३५॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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