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________________ १३८ सन्ति ये भुवनमध्यसंगताः कृत्रिमास्तदितरे जिनालयाः । तेषु याश्व जिननाथभूर्तयस्ता नमामि सकलाः कलाचिताः । ६६ । यो विदेहभुवि विद्यते सदा तीर्थनाथ निचय: सूपूजितः । ज्ञानसूर्य विदिता खिलावनि-स्तं नमामि वसुकर्महानये ॥ ६७ ॥ यत्र यत्र खलु ये महर्षयः सन्ति संयमधरायतीश्वराः । तानमामि हृदयेन सन्ततं प्राप्तये सकल संयमावलेः ॥ ६८ ॥ नास्ति नास्तिभुवनत्रये कचित् साम्यभावसदृशं सुखप्रदम् । साम्यमेव विनिहन्ति वैरितां बासी - फूल [ श्री 'भगवत्' जैन ] अनेकान्त [ वर्ष ५ साम्यमेव विदधाति बन्धुताम् ॥ ६६ ॥ ( बसन्ततिलका ) पापं विलुम्पति नृणां मुदमादधाति वैरं निहन्ति सकलं विदधाति मैत्रीम् । दुष्टेन्द्रियाश्वविजयं वितनोति सम्यक् किं किं न सौख्य निचयं विदधाति साम्यम् ॥ ७० ॥ ( शालिनी ) एवं पप्ष्टं कर्मकृग्वा सुभक्त्या का सौख्यदं साधुसंधैः । श्रात्मध्यानालीनचेतोविकल्पैः संध्या संध्यां क्रियतां साम्तभावः ॥७१॥ * इति कायो सर्गकर्म * पन्नालाल कृतः सामायिक पाठः सुखप्रदः । भूयात्साधु मनोध्वान्त ध्वंस ने तिग्मदीधितिः ॥७२॥ कल मेरी इस सुन्दरता पर फूले नहीं समाते थे ! देख देख प्रमुदित होते थे, श्रादर से अपनाते थे !! लेकिन आज वही निर्दय हो, निष्ठुरता दिखलाते हैं ! अपनाना तो दूर रहा, उलटा मुझको ठुकराते हैं !! रहने दे, मत छेद, धूलमें मुझको अब दुनिया को उसके दुलारका सच्चा रूप कल सङ्घर्ष वे लालायित थे, अपने गले लगाने को । आज वही हैं बुरा कह रहे, अरे दैव ! कुछ ही घंटो मे तिरस्कार की चट्टानों पर छूने और छुयाने को !! क्या परिवर्तन कर डाला ! पटक दिया जीवन प्याला !! अगर यही दुख देना था तो क्यों सन्मान दिलाया था ? पद-रज क्यों रहने न दिया, क्यों मुझको फूल बनाया था ? नहीं जानता क्या ? गिरने से मिलती है दारुण पीड़ा ! फिर क्यों, मेरे स्वाभिमान के साथ कर रहा तू क्रीड़ा ? छिप जाने दे ! दिलाने दे !!
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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