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________________ * वादिराजसूरि * [लेखक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी] परिचय और कीर्तन इन जुदा जुदा धर्म-गुरुकि एकीभूतप्रतिनिधिमे जान पड़ते है। दिगम्बर सम्प्रदायम जो बड़े बड़े तार्किक हुए मालपण-प्रशस्ति में उनकी और भी अधिक हे, वादिराजसूरि उन्हीम से एक है। वे प्रमय प्रशमा की गई है और उन्हें महान वादी, विजेता भार कमलमार्तण्ड न्यायकुमुदचन्द्रादिके कत्ताप्रभाचन्द्राचाय कवि प्रकट किया गया है। के समकालीन है भार उन्हीक समान भट्टाफलंकदेवक एक न्याय-ग्रन्थके टोकाकार भी। ४ सदमि यदकलङ्कः कीतने धर्मकीर्ति चमि सुरपुरोधा न्यायवादेऽक्षपादः। तार्किक होकर भी वे उच्चकोटिक कवि थे और हात ममयगुरूणामकत: सगताना इस दृष्टिमे उनकी तुलना सोमदेवसूरिसे की जा सकती प्रतिनिधिवि देवो रात वादिगजः ॥ इ० न० ३६ है जिनकी बुद्धिरूप गउने जीवन-भर शुष्क तकरूप ५ यह प्रशस्ति श० सं० १०५० (वि० स० ११८५) की घास खाकर काव्यदुग्ध सहृदयजनोको तृप्त किया था। उकाणं की हुई है। वादिराज मिल या द्राविड़ संघके थे। इस संघमे भी एक नन्दिमंघ' था, जिसकी अरुंगल शाखाक ये ६ लाक्यदीपका वाणी द्वाभ्यामेगोदगादिह । श्राचार्य थे। अरुंगल किमी स्थान या ग्रामका नाम जिनगजत एक स्मादेकस्माद्वाविंग जतःः ॥ ४० ॥ श्रारुद्वाम्बामिन्दुबिम्बराचतोत्सुक्य मदा यद्यशथा, जहॉकी मुनिपरम्परा अरुंगलान्वय कहलाती थी। श्छत्रंबाकुनमगजगजरुनयोऽभ्यर्ण च यत्कर्णयोः । षट्नर्कपण्मुख, स्याद्वादविद्यापति और जगदेक मव्यः मिहममर्त्य रीठावभाः मर्वप्रवादिप्रजा-- मल्लवादिर उनकी उपाधियाँ थी । एकीभावस्तोत्रक दनोच्चैजयकारमारमाहमाश्रीवादगमो विदाम ॥४१॥ अन्तमें एक श्लोक है जिसका अर्थ है कि सारेशाब्दिक यदोयगुणगोचरोऽयं वचनविलामप्रमर: कवीनाम्(वैयाकरण ) तार्षिक और भव्यसहायक वादिराज श्रीमचौलुक्य नश्वर जयकटके वाग्यधूजन्मभूमी, से पीछे है, अर्थात उनकी बराबरी कोई नहीं कर निष्काण्डं डिण्डिमः पर्यटति पटुम्टो वादिगजस्य जिणोः। सकता | एक शिलालेग्बमें कहा है कि सभामे वे अक माद्यवाददो जहीह गमकता गर्वभूमा जहाहि, लक देव (जैन), धर्मकीर्ति (बौद्ध),वृहम्पनि (चार्वाक), व्यवहारयों नहीहि स्फुट-मृदुमधुर-श्रव्यकाव्यावले ॥४२॥ और गोतम (नैयायिक) के तुल्य हैं और इस तरह वे पाताले व्यालगजो वसात सुविदितं यस्य जिह्वामहलं, १ देग्यो 'यापनीय माहित्यकी खोज।' अनेकान्त वर्ष ३ पृ०६७ निर्गन्ता स्वर्गतोऽमौन भवति धिषणो वज्रभृद्यस्य शिष्यः । २ षट्तकपणमुख स्याद्वादविद्यापतिगलु जगदेवमल्लवादिगलु जीवेतान्नावदेतो निलयबलवशाद्वादिन: केत्र नान्ये, एनिमिद श्रीवादिराजदेवरूम् ।'-मि. राईसद्वारामम्पादिन ग निमुच्य मर्व जयिनमिन-सभेवादिराजं नमन्ति ||४|| नगर ताल्लुकाके इन्स्क्रप्शन्स नं. ३६ । वाग्देवीसुचिम्प्रयोगसुदृढप्रेमाणमायादग३ वादिराजमनु शान्दिकलाको वादिराजमनु तार्किकमिहः। दादत्ते मम पार्यतोऽयमधुना श्रीनादिराजी मुनिः। वादिराजमनुकाव्यकृतस्ते वादिराजमनु भव्यसहाय: ।- भो भो पश्यत पश्यतेप यामना कि धर्म इत्युच्चकै -एकीभावस्तोत्र , रब्रह्मण्यागः पुगतनमुने वृत्तयः पान्तु वः ॥४४॥
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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