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अनेकान्त
श्रीपाल देव प्रशिष्य, मतिसागर के शिष्य और रूपसिद्धि (शाकटायन व्याकरणको टीका) के कर्ता दापाल मुनि सतीर्थ या गुरुभाई थे । वादिराज यह एक तरहको पदवी या विशेषण है जो अधिक प्रचलित होनेके कारण नाम ही बन गया जान पड़ता हूँ, परन्तु वास्तव नाम कुछ और ही होगा, जिस तरह वादी सिंह का असल नाम श्रजितमेन' था । समकालीन राजा
चालुक्यनरेश जयसिंह देवर्क. राजसभा में इनका बड़ा सम्मान था और ये प्रख्यातवादी गिने जाते थे । मल्लिषेण प्रशस्ति के अनुसार जयसिंहद्वारा ये पूजित भी थे - 'सिंहममर्च्य पीठविभवः ।'
जयसिंह (प्रथम) दक्षिण के स. लंकी वंशके प्रसिद्ध महाराजा थे। पृथ्वी वल्लभ महाराजाविराज, परमेश्वर, चालुक्यचक्रेश्र, परमभट्टारक, जगदेकमल्ल आदि उनका उपाधियाँ थी। इनके राज्यकालके तीससे उपर शिलालेख दानपत्र आदि मिल चुके हैं जिनमे पहला
० सं० ६३८ वा है और श० सं० ६६४ का । कमसे कम ६३८ से ६६४ तक तो उनका राज्यकाल निर्विवाद है । उनके प.पवदी द्वितीया श० सं० ६४५ के एक लेख उन्हें भोजन कमलके लिये चन्द्र, राजेन्द्रच. ल (परकेसरीवर्मा) रूप हाथी के लिये सिंह, मालवेको सम्मिलित सेनाको पराजित करने वाला ओर चेर-चोल राजाओ को दण्ड देने वाला लिखा है।
वादिराजते अपना पार्श्वनाथचरित सिंहचक्रेश्वर या चालुक्य चक्रवर्ती जयसिंहदेवकी राजधानीमे ही निवास करते हुये श० सं० १४७ की कार्तिक सुदी ३ ७ हितपिया यस्य नृणामुदात्तवाचा निबद्धा हिनरूपसिद्धिः । बन्द्रो दयापालमुनिः स वा वा सिद्धस्सताम्मूर्द्धनि यः प्रभायैः ॥ ८ सकलभुवनपालानम्रमूढविद्ध
[ वर्ष ५
को बनाया था । यह जयसिह का ही राज्य काल है । यह राजधानी लक्ष्मीका निवास थी और सरस्वती देवी (बाग्वधू) की जन्मभूमि थी ।
यशोधरचरितके तीसरे सर्गक अन्तिम ८५ पद्म में और च सर्गक उपान्त्य पद्म में कविने चतुराईम महाराजा जयसिंहका उल्लेख किया है । इसमें मालूम होता है कि यशोधरचरितकी रचना भी जयसिह समयम हुई है ।
राजधानी
स्फुरितमुकुटचूडालीढपादारविन्दाः | मदवदखिनवादीभेन्द्रकुंभप्रभेदी
गणभृजित सेनो भानि वादीभसिंहः ||५७॥ म० प्र० ६ वादिराज की पदवी 'नगदेकमल्ल बादि' है । क्या आश्चर्य जो उसका अर्थ 'जगदेकमल्ल (जयसिह) का वादि' ही हो।
चालुक्य जयसिहकी राजधानी वहाँ थी, इस्का अभी तक ठीक ठीक पता नही लगा है । परन्तु पार्श्वनाथ चरित्रको प्रशस्तिके छठे श्लोकसे ऐसा मालूम होता है कि वह 'कट्टगेरी' नामक स्थानम होगी, जो इस समय मद्रास सदर्न मराठा रेल्वे की गदग होटगी शाखा र एक साधारण सा गांव है और जो बदामी १२ मील उत्तर की अर है। यह पुराना शहर है और इसके चारो ओर अब भी शहर पनाह चिह्न मौजूद हैं । उक्त श्लोकका पूर्वार्द्ध मुद्रित प्रतिसे इस प्रकार है :
लक्ष्मी वासे वसति कटके कट्टगातीरभूमौ कामावातिप्रमदसुभगे सिहचक्रेश्वरस्य । इसमे सिंहचक्रेश्वर अर्थात् जयसिंहदेवकी राजधानी (कफ) का वर्णन है जहां रहते हुये ग्रन्थकर्त्ताने पार्श्वनाथ चरितकी रचना की थी । इसमें राजधानीका नाम अवश्य होना चाहिये; परन्तु उक्त पाठ उसका पता नही चलता । सिर्फ इतना मालूम होता है कि वहां लक्ष्मीका निवास था, और वह कट्टगानदीके तीर की भूमिपर थी। हमारा अनुमान है कि शुद्धपाठ 'कट्टगेरीतिभूमौ' होगा, जो उत्तरभारत के श्रर्द्धदग्ध लेखकों की कृपासे 'कट्टगातीरभूमौ' बन गया है । उन्हें क्या पता कि 'कट्टगेरी' जैसा अड़बड़ नाम भी किसी राजधानीका हो सकता है ?
जयसिंह पुत्र सोमेश्वर या हवमल्लने 'कल्याण' नामक नगरी बसाई और वहाँ अपनी राजधानी १०व्यातन्वज्जयसिहता रणमुखे दीर्घ दधौ धारिणीम् । ११रणमुखजयसिहोराजलक्ष्मी बभार ॥