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अनेकान्त
[वर्ष ५
तदा प्रादेशिकप्रत्यक्षवर्जनं तदपाक्रियते, व्यवहारा- के लिए सूत्रकार' शब्दका प्रयोग नहीं किया है। सूत्रोपात' श्रयणात । साकारमिति वचनानिराकारदर्शनव्युदासः। और 'सत्र-वार्तिकाऽविरोधः' इन दो पदोंमें 'सत्र' शब्दका अंजसेति विशेषणाद्विभंगज्ञानमिन्द्रियानिन्द्रिय प्रत्यक्षा- जो प्रयोग है वह उमास्वातिकृत तत्वार्थसत्रके उस १२ में भासमुत्सारितं । तच्च विधं द्रव्यादिगोचरमेव नान्य- 'त्यक्षमन्यत्' सूत्रके लिए है जिसके साथ इन्द्रियानिन्द्रियानदिति विषयविशेषवचनादर्शितं । ततःस्त्र-वार्तिकाऽवि. पेक्ष' इत्यादि प्रकलंक-बार्तिकके विरोधका परिहार किया रोधः सिद्धो भवति।"
गया है तथा 'प्रत्यक्षलक्षणं प्राहः' इत्यादि अकलंक-कारिका
की भी संगति बिठलाई गई है। विद्यानन्दने अकलंककी इसमें बतलाया है कि-ज्ञानग्रहणके सम्बन्धसे
इस न्याय विनिश्चय-गन कारिकाको अपना वार्तिक बनाया शामका अधिकार होनेसे--केवलदर्शन और अवधिदर्शनरूप
है, इसमे 'प्राहुः' क्रियाका जो कर्ता अव्याहृत था उसे निराकारग्रहणका निराकरण होजाता है, ज्ञान के साथ प्रमाण
अगले पद्यवार्तिकमे 'मत्रकाराः' पदके द्वारा व्यक्त किया का सम्बन्ध होनेसे अप्रमाणता चली जाती है, सम्यकका
है और यह 'सूत्रकाराः' पद उन सूत्रकार प्राचार्य उमास्वाति अधिकार होनेसे विभंगज्ञानका परिहार हो जाता है और
के लिए ही प्रयुक्त किया है जिनके उक्त १२ वैसूत्रके साथ 'प्रत्यक्ष' शब्दमे परापेक्षाकी-- इन्द्रियानिन्द्रियसहकारिताकी
अकलक-वार्तिकके विरोधका परिहार किया गया तथा निवृत्ति हो जाती है। कि प्रत्यक्ष एकमात्र अक्षके-आत्मा
अकलंक-कारिकाकी भी संगति बिठलाई गई है । स्वयं के-ही पाश्रित होता है, परकी-इन्द्रिय और अनिन्द्रिय
अकलंकदेवने, राजवार्तिकम, अपने उक्त वार्तिकको उक्त (मन) की--अपेक्षा नहीं रखता, इसलिये 'प्रत्यक्ष' शब्दमे
१२ वे सूत्र के साथ संगत सिद्ध किया है, जैसा कि ऊपर परापेक्षाकी निवृत्ति नहीं होती, ऐना नहीं कहा जा सकता।
दिए गए उसके अवतरणसे प्रकट है, और कारिकामे जिन और इसलिये " इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्षमतीतव्यभिचारं
स्पष्ट, साकारं अंजसा विशेषणोंका प्रयोग किया है वे क्रमश: साकाग्ग्रहणं" ( प्रत्यक्षम् ) यह जो 'प्रत्यक्षमन्यत' सूत्रका
वातिकगत इन्द्रियानिन्द्रियानपेक्ष, साकारग्रहणं, अतीतव्यवार्तिक है वह सत्रोपात्तरूपसे उक्त हुश्रा है-सूत्रोक
भिचारं पदोंके ही वाचक हैं, इसलिये अकलंकके ध्यानमे विषयका ही प्रतिपादक है । और इसलिये 'द्रव्य-पर्याय
'प्राहुः' क्रियाका कर्ता उन सूत्रकारसे भिन्न नहीं हो सकता सामान्य-विशेषरूप अर्थ एवं श्रात्माके-स्व-परके-स्पष्ट,
जिनके सूत्रके साथ अकलंकदेवने गजवार्तिकमें अपने साकार और प्रांजप्स ( सम्यक् ) ज्ञानको सूत्रकार प्रत्यक्षका
वार्तिककी संगति बिठलाई है । स्वयं कलंकदेव तो उस लक्षण कहते हैं यह बात अकलंकके ज्ञानमे रही है
'प्राहुः' क्रियाके कर्ता किसी तरह भी नही हो सकते । ऐसी उनके वार्तिकादि ग्रंथोंका ऐसा प्राशय है-यह जानना
हालतमें शास्त्रीजीने उक्त अवतरण में आए हुए 'सूत्र' और चाहिये, क्यों के प्रधान और गीणभावसे लक्षणका कथन
'मूत्रकार' शब्दोंका जो वाच्य क्रमश: 'राजवातिक' और किया गया है। इसके बाद प्रधान और गौण लक्षणके
'अकलंकदेव' बतलाया है वह बिलकुल ही भ्रममूलक तथा स्पष्टीकरणके साथ ज्ञानके स्पष्ट, साकार और अंजसा
वस्तुस्थिति के विरुद्ध है। विशेषणोंकी सार्थकता बतलाते हुए उनकी संगति उन विशेषणोंके साथ बिटलाई है जो राजवातिकके
मालूम होता है श्लोक वार्तिक्के उक्त अवतरण मे सूत्र' उक्त वार्तिकमें पाये जाते हैं । और अन्तमें
और 'सयकार' शब्दोंको अकलंकवाक्योंके अनन्तर प्रयुक्त नतीजा निकालते हुए लिखा है कि-'इससे मत्र और
हुए देखकर शास्त्रीजी, अपनी इष्टसिद्ध समझते हुए एक वातिकका अविरोध सिद्ध होता है' अर्थात् सूत्र और दम हर्षाफल हो उठे हैं और उस हर्षावेशमे उनकी दृष्टि वार्तिकमें कोई विरोध नहीं है।
नीचेके 'ततः मत्र-वार्निका विरोध: सिद्धो भवति' इस इस सारी वस्तुस्थिति परसे स्पष्ट है कि विद्यानन्दने यहाँ वाक्यपर भी नहीं गई, और न उन्हें यह समझ पड़ा है कहीं भी राजवार्तिकके लिये 'सूत्र' शब्दका और अकलंकदेत कि यहां 'सत्र' और 'सत्रकार' शब्द उस सत्र तथा उसके