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________________ ३३२ अनेकान्त वर्ष५ [१०] श्रीवामपूज्य-जिन-स्नोत्र शिवासु पूज्योऽभ्युदयक्रियाग्नु त्वं वासुपूज्यस्त्रिदशेन्द्रपूज्यः । मयाऽपि पूज्योऽल्पधिया मुनीन्द्र दीपार्चिपा किं तपनो न पूज्यः ॥ १॥ 'हे (वसुपूज्य-मुन) श्रीवासुपूज्य मुनीन्द्र । श्राप शिवम्वरूप अदयवियानोम पूज्य हैं--मंगलमय स्वर्गातरगादि-कल्याणक-क्रियायांक अबमपर पूजाको पात . ए हैं-, त्रिदशेन्द्रपूज्य हैं-देव द्रांक. द्वाग पृजे गये है पृजे जाते है, और मुझ अल्पबुद्धिके द्वारा भी पूजन हैं--में भी स्तुत्य दिक रूपम अापकी पृना किया रिता हूँ। (अल्बुद्धिक द्वाग पूजा जाना कोई श्रमंगत बात नहीं है, क्योकि । दीपशिग्गके द्वारा क्या सूर्य पूजा नही जाता ?-माही जाता है, नाग दीपक जलाकर मृर्यकर्को श्रारती उतारन हैं, दीशिवाम उमकी पूजा करते हैं।' न पूजयाऽर्थस्त्वयि वीतरागे न निन्दया नाथ विवान्तवरे। नथाऽपि ने पुग्यगुणम्मृतिर्नः पुनानि चित्तं दुरिताञ्जनेभ्यः ॥२॥ 'हे भगवन् ! पूजा-वन्दनाये श्रापका कोई प्रयोजन नहीं है, क्योकि आप वीतरागी हैं-गगका अंश भी अापके भागम विद्यमान नहीं है, जिमके कारण किमी की पूजा-बन्द नाम भार प्रसन्न होत । (इसी तरह) निन्दासे भी आपका कोई प्रयोजन नही है-कार्ड कितना ही अापको बुग कहे, गालिया दं, परन्तु उसपर श्रापको नग भी सोम नहीं ग्रामका क्योकि श्रापके श्रात्मामे बंग्भाव-दुपाश-बिल्कुल निकल गया है-यह उमम विद्यमान ही नहीं है--, निमसे नम तथा अपमन्नतादि कार्योका उद्गव हो माता । मा हालतम निन्दा और स्तुति दोनों ही आपके लिए मगन हैं-उनमें अारका कुछ भी बनता या बिगड़ता नही है । फिर भी आपके पुण्य गुणोग स्मरण हमारे चित्तको पाप मलाये पवित्र करता है।--और इम लिये हम जो आपकी पूजा बन्नानादि करते है नह ग्रारके लिए नहीं -श्रा का प्रमन्न कर के आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वाग आपको लाभ पहुंचाना यह सब उमका विष ही नदी है। उमका ध्येय है यापके पण्य गुणों का स्मरण-भारपूर्वक अनुचिन्तन-, जो हमारे चिनको-चिद्र। श्रान्नाको-पाप-माने छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाना है और इम न हम उसके द्वाग अपने ग्रामगक विकामकी माधना करते है। अतः वह अापकी पूजा-वन्दना हम अपने ही तितके लिये करते है। पूज्यं जिनं वाऽचयतो जनस्य मावद्यलेशा बहपुगयराशी।। दोपाय नाऽलं कणिका विपम् न दृषिका शीतशिवाम्वुराशों ॥३॥ ___ 'हे पूज्य जिन श्रीवासु पूज्य! अापकी पूजा करते हुए प्राणीके जो मावद्यलेश होता है--मगगपरिणति तथा प्रारम्भादित्रद्वारा लेशमात्र पापका उर्जन होता है-वह (भावपत्रक को हुई पृजाम उत्पन्न होने वाली) बहुपुग्य-राशिमे दोपका कारण नहीं बनता--प्रचुर पुण्य-पु जमे हनवीर्य हुअा व पार उम पराय । दृप काने अथवा पावरूप परिणत करनेम ममर्थ नही हाता । ( मी टीक है। है ) विषकी एक काणिका शीतल तथा कल्याणकारी जलसे भरे हुए समुद्रको दूपित नही करती-उमे प्राणघातक विपधर्मम युक्त विपैला नहीं बनाती।' यद्वन्नु वायं गुग्णदोषमूनिमित्तमभ्यन्नरमूलहेतोः। अध्यात्मवृत्तस्य नदङ्गभूतमभ्यन्तरं केवलम यलं न ॥४॥ 'जो बाह्य वस्तु गुण-दोपकी--पराय-यापादिरूप उपकार-अपकारकी-उत्पत्तिका निमित्त होती है वह अन्तरगमें वर्तने वाले गुण-दोषकी उत्पत्तिके अभ्यन्तर मूल हेतुकी. - शुभाशुभादि-परिणाम-लक्षण उपादानकारगणकी-अंगभूत-- सहकारी कारण भूत-होती है ( अोर हम लिए मूल कारण शुभाऽशुभादि-परिणाम के अभावम महकारिकारगारूप कोई भी बाह्यवस्तु पुण्य-पापादरूप गुगण-दोपकी जनक नह। । । बाह्य वस्तुकी अपेदा न रग्बता हा केवल अभ्यन्तर कारण भी-अकेला जीवाद किमी द्रव्यका परिणाम भी-गुण-दोपकी उत्पत्तिमे समर्थ नहीं है।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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