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________________ किरण -६] अनेकान्तक मुम्बपृष्ठका चित्र ३३३ वातरोपाधिसमग्रतेयं कार्येषु ते द्रव्यगतः स्वभावः। नवान्यथा मोक्ष-विधिश्च पुमा तेनाऽभिवन्द्यस्वमृपिव॒धानाम् ॥५॥-स्वयम्भूस्तोत्र 'कार्योम बाह्य और अभ्यन्तर-उपादान योर सहवार्ग-दोनों कारणोंकी जो यह पूर्णता है वह आपके मतम द्रव्यगत स्वभाव है-जापादि-पदार्यगत अर्थक्रियाकारि-स्वरूप है। अन्यथा-टम ममग्रता और द्रव्यगत स्वभावके विना अन्य प्रकारमे--पुरुषांके मोक्षकी विधि भी नही बनती - घटाादकका विधान ही नहीं किन्तु मुक्तिका विधान भी नहीं बन सकना । इसीसे हे परमद्धि-सम्पन्न ऋषि वामपृच ! आप बुधजनोंके अभिवन्ध हैं-गणधरादि विबुधजनोंके द्वारा जा-वन्दना किये जाने के योग्य है।' अनकान्तक मुखपृष्ठका चित्र [सम्पादकीय ] ना०५ नवम्बर मन १९४२ के 'जनमित्र' (वर्ष सूचित कर दिया गया था कि-"जैनी नीति क्या है अथवा ५३ अंक ५.) में, पृष्ठ ८.१ पर, कुछ पंक्तियाँ पं० उम्का क्या म्वरूप और व्यवहार है, इस बातको कुशल 'बुद्धिलाल श्रावक, देवर्ग' के नाम मुद्रित हुई हैं। चित्र-कारने दो प्राचीन पद्योके आधारपर चित्रित किया इन पंक्तियाने अनकान्तक मुखपृष्ठ पर प्रकाशित है और उन्हे चित्रम ऊपर-नीचे अङ्कित भी कर दिया होनेवाल जैनी नीति' के चित्रपर श्रावकजीने कुछ है।" साथ ही, दोनो पद्योक विपयका स्पष्टीकरण भी आपति का है, जिसका रूप इस प्रकार है- कर दिया गया था । दूसरे पद्य 'विधेयं वार्य' का __"अनकान्त मासिक पत्रके मुख पृष्ठ पर एकना- मग्रीकरण करते हुए यह साफ तौरपर बतलाया था कपेन्ती गाथाका चित्रपट है, उसमें दास अधिक हाथ कि-'जैनी नीतिरूप गोपीके मन्थनफा जो वस्तुतत्व वाली गापिका मन्थन कर रही है, जो अजैनियोक विषय है और जिमका अमृतचन्द्रके पद्यमें उल्लेख है त्रिनत्र, चतभज, पडानन, दशधर, बीसवाहुवत् वह अनेक नयोकी विवक्षा-अविवक्षाके वशसे मिथ्यात्वकी और आकर्षण है। क दर्शकन कहा कि विधेय, निपेध्य, उभय, अनुभय, विधेयोप्नुभय -"ज का लक्ष्मी ज आय महि भाउत हैं ?" इस निषेध्याऽनुभय और उभयाऽनुभयके भेदसे सातओर लक्ष्य वाहनीय है। स्वामी अमृनचद्रका अभिप्राय भंगरूप है और ये मातों भंग सदा ही एक दो नयाम है जो मतभंगीकी ओर तानतून की जानसे दुसरेको अपेक्षाको लिये रहते हैं। प्रत्येक वस्तुतत्व विपरीत भामना है।दो हाथकी गोपीका चित्र उचित है। इन्ही मात भंदोमें विभक्त है, अथवा यों प० पन्नालालजी वर्मतका कविता दो हाथोका प्रतिपा- कहिये कि वन्नु अनेकान्तात्मक होनसे उसमें अपरिदन करती है।" मित धर्म अथवा विशेप संभव हैं और वे सब धर्म इस आर्गत परसे मान्हम होता है कि श्रावकजी- अथवा विशेष वस्तुके वस्तुतत्व हैं। ऐसे प्रत्येक वस्तुने चित्रके मर्मको ठीक तारपर ममका नहीं है । मब तत्वके 'विधेय' आदिके भेदसे सातभेद हैं। इन मात में पहले आपने यही समझनमें ग़लती की है कि उक्त मे अधिक उसके और भेद नहीं बन सकते, इसलिये चित्र मात्र अमृतचंद्रक एकेनाकर्पन्ती' इस एक पद्यके ये विशेप (त्रिकालधर्म) सातकी संख्याके नियमको आधार पर ही बना हुआ है, जबकि वह दो पद्योके लिये हुए हैं। इन तत्वविशेपोंका मन्थन करते समय संयुक्ताधार पर बना है। दूसरा पद्य म्वामी समन्तभद्र जैनीनीतिरूप गोपीकी दृष्टि जिस समय जिस तत्वको का है, जो बहुत गम्भीरार्थक है और वह भी चित्रपर निकालने की होती है उस समय वह उसी रूपसे परिअङ्कित है। चित्रपरिचय (वर्प४,कि पृ२) में भी यह गत और उसी नामसे उल्लिखित होती है, इसीसे
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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