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________________ ३३४ अनेकान्त [ वर्ष ५ मलिषेणादि आचार्योंके 'भैरवपद्मावती कल्प' जैसे ग्रंथोको उटाकर देख लेना चाहिये | भैरव - पद्मावती कल्पका एक पद्य नमूने के तौर पर नीचे दिया जाता है जिसमें पद्मावतादेवोको चार भजाओंवाली तथा त्रिलोचना प्रकट किया है चित्र में विधिदृष्टि, निषेधदृष्टि आदि सात नामों के साथ उसके सात रूप दिये हैं और उसे सप्तभंगरूपा लिखा है।' इसमें स्पष्ट है कि जैनीनीतिरूप गोपी एक है, जिसके सात नाम और नामानुसार सात रूर हैं। मुखपृष्ठ पर जो सात चित्र हैं वे उसी एक गोपिका देवीके सात रूप हैं - वस्तुतः सात गोपियाँ मन्थन नहीं कर रही हैं। एक गोपीकी सात अवस्था ओंका एक ही चित्रमें प्रदर्शन नहीं किया जा सकता । अतः उसकी दृष्टि और परिणतिको स्पष्ट करनेके लिये सात चित्रोका अवलम्बन लिया गया है । चित्र नं० २, २, ४ से प्रकट है कि उस गोधिका देवीके मुलतः दो हाथ हैं, वही देवी जब चित्र २० ३, ५, ६ में चार हाथ और चित्र नं० ७ में छह हाथ धारण करती है। तो समझना चाहिये कि यह उसकी विक्रियाका परिराम है। एक वस्तुकी अनेक अवस्थाएँ होने पर उस में क्रिया-विक्रियाका होना स्वाभाविक है; फिर एक देवी अपनी विक्रिया-शक्तिसे, अपने दृष्टिविन्दु एवं लक्ष्यको नष्ट करने के लिये, यदि दोके स्थान पर चार अथवा छह भुजाएँ बना लेती है तो इसमें जैन सिद्धान्तकी दृष्टिसे कौन सी बाधा आती है, जिसके कारण दोसे अधिक भुजाओं के प्रदर्शनको “मिध्यात्व की ओर आकर्षण" कहा जा सके ? क्या जैन सिद्धान्तानुसार वैक्रियक शरीर के कारण देवतागरण और वैकियक ऋद्धिके कारण मर्त्यजन दोसे अधिक हाथ नही बना सकते ? और क्या रावणने बहुरूपिणी विद्याको सिद्ध करके अपने एक से अधिक सिर और दोमे अधिक हाथ नही बनाये थे ? यदि बना सकते हैं और बनाये थे तो फिर दोसे अधिक हाथोंके प्रदर्शनको मिथ्यात्व की ओर आकर्षण बतलाना कैसे युक्तिसंगत हो सकता है ? नहीं हो सकता । यहां पर मैं इतना और भी बतला देना चाहता हैं कि अनेक प्रतिपाठों तथा संहितादि दिगम्बर ग्रन्थों में भी अनेक शासन देव - देवियों - यक्ष-यक्षियों और विद्यादेवियोंको दोसे अधिक भुजाओं तथा नेत्रा दिकोंसे युक्त बतलाया है। इसके लिये आशाधरादि के प्रतिष्ठापाठों, एकसंध आदिके संहिताशास्त्रों और पाश-फल- वरद गज्वशकरण करा पद्मविष्टरा पद्मा । सा मां रक्षतु देवी त्रिलोचना रक्तपुष्याभा ॥ ऐसी हालत में त्रिनेत्र और चतुर्भुजादिकी कल्पना जनकल्पना बतलाका भी उसे मिथ्या ठहराना उचित नही है । को ही एक दर्शक कहने की बात, चित्रको देखकर यदि कोई दर्शक पूछता है कि यह क्या लक्ष्मीजी आकर मट्टा चिनो रही है अथवा दधि-मन्थन वर रही हैं ? तो इसमे विचलित होने की कौन बात है ? उत्तर में साफ कहना चाहिये- 'हाँ, यह ज्ञानलक्ष्मीजी हैं जो गोपिकाका रूप धारण करके वस्तुतत्वका मन्थन कर रह हैं और उसके द्वारा वस्तुवत्वका ठीक विश्लेरण करनेवाली जननीतिको स्पष्ट करके बतला रही हैं।' अ रही अमृतचन्द्राचार्य के दो नयों के अभिप्रायकी वात, जब वस्तुतत्व समभंगरूप है और वे सप्तभंग सप्तनयात्मक हैं तथा अमृतचंद्र अपने उक्त पद्य में वस्तुतत्वका उल्लेख कर रहे हैं तब उनका वह वस्तुतत्व दो नयाँक अभिप्रायको ही लिये हुए कैसे कहा जा सकता है ? क्या आचार्य अमृतचंद्र केवल दो ही नय मानते थे ? यदि दो ही मानते थे तो फिर तत्वार्थसार में उन्होंने नैगमादिरूपसे सात नयोंका कथन क्यों किया ? और पुरुषार्थसिद्धयुपायके 'इति विविधभङ्गगहने' पद्यमे 'प्रबुद्धन यच क्रमचाराः' पदके द्वारा बहुत नयोंके समूहकी सूचना क्यों की ? इन उल्लेखोंपर से स्पष्ट है कि वे बहुत नयोंको मानते थे मात्र दो नयोंका ही उनका अभिप्राय बतलाना तथा सप्त भंगोकी बातको 'तानतून' और 'विपरीत' प्रकट करना भूलसे खाली नहीं है। स्वामी समन्तभद्रने जिनेन्द्र के कथनानुसार वस्तुको बहुत नयोंकी विवक्षा अविक्षाके वश भेदरूप बतलाया है, और यह बात चित्रमें अंकित उनके पाके 'बहुन६ - विवक्षेतरवशात' इस पदसे भी प्रकट
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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