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________________ किरण १० ११] समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने ३३१ विधिविषक्तप्रतिषेधरूपः प्रमाणभत्राऽन्यतरत्प्रधानम् । गुणो परो मुख्यनियामहेतुर्नयः स दृष्टान्तसमर्थनस्ते ॥२॥ (हे श्रेयाम जिन!) अापके मतमे वह विधि-स्वरूपादिचतुष्टयसे अस्तित्व-प्रमाण है (प्रमाणका विषय होनेसे) जो कथंचित तादात्म्य सम्बन्धको लिए हुए प्रतिषेध रूप है-परूगदिचतुष्टयकी अपेक्षा नास्तित्वरूप भी है-तथा इन विधि-प्रतिषेध दोनोंमें से कोई एक प्रधान ( मुख्य ) और दूसरा गौण होता है (वक्ताके अभिप्रायानुसार न कि स्रू से*)। और मुख्यके-प्रधानरूप विधि अथवा निषेधके-नियामका-'स्वरूपादिचतुष्ट यसे ही विधि और पररूपादिचतुष्टयमे ही निषेध' : म नियमका-जो हेतु है वह नय है (नयका विषय होनेसे) और वह नय दृष्टान्त-समर्थन होता है-दृष्टान्तमें समर्थित अथवा दृष्टान्तका ममर्थक । उमके अमाधारण स्वरूपका निरूपक) होता है। विवक्षितो मुख्य इतीप्यतेऽन्यो गुणोऽविवक्षो न निरात्मकस्ते । तथाऽपिमित्राऽनुभयादिशक्तिद्धयाऽवधेः कार्यकरं हि वस्तु ॥३॥ ह श्रेयास जिन !) आपके मतमे जो विवक्षित होता है-कहने के लिए इष्ट होता है- वह 'मुख्य (प्रधान)' कहलाता है, दूसरा जो अविवक्षित होता है-जिमका कहना नहीं होता-वह 'गौण' कहलाता है, और जो अविक्षित होता है वह निगमक (अभारू नहीं होता- उसकी सत्ता अवश्य होती है। इस प्रकार मुख्य-गौणकी व्यवस्थासे एक ही वस्तु शत्रु, मित्र और अनुभयादि शक्तियोको निये रहती है-एक ही व्यक्ति एक का मित्र हे (उपकार करनेसे), दूमरेका शत्र है (अपकार करने मे), तोमर का शत्रु-मित्र दोनों है (उपकार-श्रपकार करनेस) और चौथका न शत्रु है न मित्र ( उमकी भोर उपेक्षा धारण करने मे), और इस तरह उममे शत्र-मित्रतादिके गुण युगपत् रहते हैं। वास्तवमें वस्तु दो अवधियों (मर्यादाश्री) मे कार्यकारी होती है-विधि-निषेधरूप मामान्य-विशेषरूप अथवा द्रव्य-पर्यारूप दो दो सापेक्ष घका अाश्रय लकर ही अर्थक्रिया करनेमे प्रवृत्त हती है और अपने यथार्थ सरूपकी प्रतिष्ठापक बनती है।' दन्तसिद्धावुभयोविवादे साध्यं प्रसिद्धयेन तु ताहगस्ति । यत्सर्वथैकान्तनियामहष्टं त्वदीय दृष्टिविभवत्यशेषे ॥४॥ 'वादी प्रतिवादी दोनोके विवादमे दृष्टान्त (उदाहरण) की सिद्धि होनेपर साध्य प्रसिद्ध होता है-जिम सिद्ध करना चाहा हैं उनकी भले प्रकार मिद्रि हो जाती है परन्तु वैसी कोई दृष्टान्तभूत वस्तु है ही नहीं जो ( उदाहरण गकर ) सर्वथा एकान्तकी नियामक दिखाई देती हो। क्योंकि आपकी अनेकान्त-दृष्टि सबमे-साध, साधन और दृष्टान्तादि में-अपना प्रभाव डाले हुए है-वस्तुमात्र अनेकान्तात्मकत्यस व्यास है, इमीसे सर्वथा एकान्नवादियोके मतम ऐमा काई दृष्टान्त ही नहीं बन सकता जो उनके मर्वथा एकान्तका नियामक हो और इस लिए उनके सर्वथा नित्यत्वादिरूप मी मिद्रि न बन सकती।' पकान्तप्रिनिषेधसिद्धि-न्यायेषुभिर्मोहरिपु निरस्य। असिस्म कैवल्य-विभूति-सम्राट् ततस्त्वमहनसि मे स्तवाहः ॥५॥ _ 'हे अर्हन्-श्रेयो जिन ! आप एकान्तदृष्टिक प्रतिषेधकी सिद्धिरूप न्यारवाणोंसे-तत्वज्ञान के सम्यक् प्रहागेसेमोह-शत्रका अथवा मोहकी प्रधानताको लिये हुए ज्ञानावरणादिरूप शत्रसमहका-घातिकर्म-चतुष्टयका-नाश करके कैवल्य-विभूतिके - केवल ज्ञानके माय माथ समवमरणादि विभूतिके-सम्राट हुए हैं। इसीसे श्रार मेरी स्तुतिके योग्य हैं। -मैं भी एकान्तदृष्टिके प्रतिषेधकी सिद्धिका उपासक है और उसे पूर्णतया मिद्ध करके मोह-शत्रुको नाश करदेना चाहता हूँ तथा कैवल्यविभूतिका सम्राट् बनना चाहता हूँ. अतः आप मेरे लिए यादर्शरूपमें पृज्य है-स्तुत्य हैं।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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