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अनेकान्त
स्वजीविते कामसुखे च तृष्णया दिवा श्रमान निशि शेरते प्रजाः । raat an anमत्तवान जागरेवाऽऽत्मविशुद्ध वर्त्मनि ॥ ३ ॥
[ वर्ष ५
'अपने जीनेकी तथा काम-सुग्वंकी तृष्णाके वशीभूत हुए लौकिक जन दिनमें श्रममे पीडित रहते हैं—सेवा- कृष्णादिजन्य क्लेश-खेदसे श्रभिभूत बने रहते हैं और रातमें सो जाते हैं - अपने श्रात्मा के उद्धारकी और उनका प्राय: कोई लक्ष्य ही नहीं होता । ( परन्तु) हे श्रार्य शीतल जिन ! श्राप रात-दिन प्रमादरहित हुए आत्माकी विशुद्धिके मार्ग में जागते ही रहे हैं —— ग्रात्मा जिससे विशुद्ध होता है – मोहादि कमौसे रहित हुआ स्वरूपमं स्थित एवं पूर्ण विकसित होना है—उस सम्यग्दर्शन - ज्ञान- चारित्ररूप मोक्षमार्ग के श्रनुष्ठानमे सदा सावधान रहे हैं ।'
श्रपत्यवित्तोत्तरलोकतृष्णया तपस्विनः केचन कर्म कुर्वते ।
भवान्पुनर्जन्म-जरा-जिहासया त्रयीं प्रवृत्ति समधीरवारुणत् ॥ ४ ॥
'कितने ही तपस्वीजन संतान, धन तथा उत्तरलोक (परलोक या उत्कृष्ट लोक ) की तृष्णाके वशीभूत हुएपुत्रादिकी प्राप्ति के लिए, धन की प्राप्ति के लिये अथवा स्वगादिकी प्राप्ति के लिये -- (श्रादादक यज्ञ ) कर्म करते हैं, ( परन्तु हे शोतल जिन ! ) श्राप समभावी हैं-सन्तान, धन तथा उत्तरलोक की तृष्णासे रहित हैं - आपने पुनर्जन्म और जराको दूर करनेकी इच्छासे मन-वचन-काय तीनोंकी प्रवृतिको ही रोका है - तीनका स्वछन्द प्रवृत्तिका हटाकर उन्हें स्वामान किया है और इस तरह श्रात्मविकासका उच्च स्थिति पर पहुँचकर योग निरोध-द्वारा न मनसे कोई कर्म होने दिया, न वचनसे और न शरीरमे । भावार्थ - मन-वचन-कायकी प्रवृत्तिको योग-मंचालन कहते हैं। योग-संचालन मे ग्रामे कर्मका
व तथा बन्ध होता है, जो पुनर्जन्मादिरूप संसारपरिभ्रमणका हेतु है । अत: आपने तो योगमंचालन कर्मका कर अथवा स्वाधीन बनाकर संसार - परिभ्रमणसे छूटने का यत्न किया है, जबकि दूसरे तपस्वियोने सामारिक इच्छाक वशीभृत होकर अग्निहोत्रादि कर्म करके संसार परिभ्रमणका ही यत्न किया है। दोनोंकी इन प्रवृत्तियों में कितना बड़ा अन्तर है ! त्वमुत्तमज्योतिरजः क्व निवृतः क्व ते परे बुद्धिलवोद्धव-क्षताः ।
ततः स्वनिःश्रेयसभावना पर वुधप्रवेकैर्जिन शीतलेज्यसे ॥ ५ ॥
हे शीतल जिन ! कहाँ तो श्राप उत्तमज्योति परमानिशयको प्राप्त केवलज्ञानके धनी, श्रजन्मा - पु.. जिन्ममे रहित - सामारिकायम रहित और निर्वृत- सासारक इच्छा से रहित सुखीभूत! और कहीं वे दूसरे प्रसिद्ध श्रन्य देवता अथवा तर जो लेशमात्र ज्ञानके मदसे नाशको प्राप्त हुए हैं-मामारिक विषयोंमे श्रन्यासक्त हो र दुःखोपडे हैं और ग्रात्मस्वरूप विमुख एव पतित हुए हैं !! इसी लिये अपने कल्याणकी भावनामे तत्पर - उमे माधने के लिए सम्यदर्शनादिक के अभ्यासपूर्ण सावधान — बुधश्रेष्टों गणादक देवोंके द्वारा आप पूजे जाते हैं ।' [ ११ ] श्री श्रेयो- जिन स्तोत्र
श्रेयान् जिनः श्रेयसि वर्मनीमाः श्रेयः प्रजाः शासदजेयवाक्यः । भववकाशे भुवनत्रयेऽस्मिन्नेको यथा वीतघनो विवस्वान् ॥ १ ॥
一
'हे श्रजेयवाक्य बाधित वचन - श्रेयो जिन ! - समृर्ण कपायी- इन्द्रियां अथवा कर्मशत्रु ग्रांको जीतने वाले श्रीयाम तीर्थकर ! - आप इन श्रेयप्रजाजनोको - भव्यजीवांको — श्रेयोमार्ग में अनुशासित करते हुए - मोक्ष मार्गपर लगाते विगत घन सूर्यके समान अकेले ही इस त्रिभुवन में प्रकाशमान हुए हैं । अर्थात् जिस प्रकार घट रहित सूर्य अपनी श्रप्रतिहत किरणों द्वारा श्रकेचा दी अन्धकारसमूहका विघातक बनकर, दृष्टिशक्तिसे सम्पन्न नेत्रांवाली प्रजाको इष्टस्थानकी प्राप्तिका निमित्तभूत सन्मार्ग दिग्वलाता हु जगतमे शोभाकी प्राप्त होता है उसी प्रकार ज्ञानावरणादि घातिकर्म-चतुष्टय रहित श्रार अकेले ही अजानान्धकार- प्रसारको विनष्ट करनेसे समर्थ बनकर ने बाधित वचनों द्वारा भव्य जनाको मोक्षमार्गका उपदेश देते हुए इस त्रिलोकीम शोभा को प्राप्त हुए हैं ।'