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* ॐ अहम् *
स्व-सघात
तत्व-प्रकाशक
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नीतिविरोधचसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः॥
नवम्बर-दिसम्बर
वर्ष ५ किरण १०-१२
वीरसेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा ज़िला सहारनपुर मानिक, मार्गशीर्ष, बीरनिर्वाण सं० २४६६, विक्रम सं. १६६६
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समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने
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श्रीशीनल-जिन-स्तोत्र न शीतलाश्चन्दनचन्द्ररश्मयो ने गाङ्गमम्मो न च हारयटयः ।
यथा मुनेरतेऽनघ चास्यरश्मय. शमाम्वगाः शिशिग विपश्चिताम् ॥१॥ 'हे अनघ-निग्वद्य-निदोष श्रीशीनन नि!-श्राप प्रत्यक्षज्ञानी-मुनिकी प्रशम-जलसे भरी हुई वाक्य-रश्मियोयथाान अर्थम्बम्पको प्रकाशक वचन-किग्णालियो-जिम प्रकारमे--ममाग्नापको मिटाने रूम-विद्वानोके लिए
योगदेय-जयका विक रखने वालों के वाम्ने-शीतल हैं-शान्तिप्रद है-उस प्रकार न तो चन्दन तथा चन्द्रमाकी मिण शीतल है. न गंगाका जल शीतल है और न मोनियोंके हारकी लडिया ही शीतल है-पोई भी इनम में भरग्रानाप-जन्य दुःम्बको मिटाने ममर्थ नहीं है।'
सुखाऽभिलापाऽनलदाहमूञ्छिनं मनोनिजं आनमयाऽमृताऽम्बुभिः ।
व्यदिध्यपस्त्वं विपदाह-मोहितं यथा भिषग्मन्त्रगुणैः स्वविग्रहम् ॥२॥ 'जिस प्रकार वैद्य विष-दाहसे मूञ्चित हुए अपने शरीरको विषापहार मंत्रके गुणोसे-उम अमोघशक्तियोमे-निविष एवं मूछा-रहित कर देता है उसी प्रकार (हे शीतल Iन!, आपने मासारिक सुखोंकी अभिलाषा-रूप अग्निके दाहम्मेचतुर्गति-मम्बन्धी दु:ग्वमंतापसे-मूर्छित हुए-हयोपादेयके विवेकम विमुग्व हाए-अपने मनका-श्रात्माको- ज्ञानमय अमृत-जलोके सिञ्चनसे मूर्छारहित-शान्त किया है-पूर्ण विवेकको जागृत करके उसे उत्तरोत्तर मतापप्रद सामारिक सुग्याकी अभिलापामे मुक्त किया है।'