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________________ जैनसाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री (लेखक---श्री वासुदेवशरण अग्रवाल, क्यूरेटर पी० म्यूजियम लखनऊ) am-00.00 भारतीय इतिहासकी मामग्रीका क्षेत्र बहुत वि- प्राचीन समाजके अंगीभूत गोत्र-परिवारोंकी तालिकाएँ शाल है। एक ओर पुगतत्व जगतसे प्राप्त वह हैं उनका मचित संपादन हमारे इतिहासके लिये बहुमूल्य एवं विपुल सामग्री है जिसकी प्रामाणिकना उतना ही आवश्यक है जितना कि पुराणों के भुवन सर्वोपरि मान्य है। हजारो शिलालेख, एवं उनमें भी कोषों में मंचित पर्वत-नदी जनपदोंकी बहुमूल्य भौगोअधिक मूर्तियाँ और सिक्के. मिट्टीके खिलौने, भाँडे- लिक सूचियोकी विस्तृत पहचान करना। महाभारत बर्तन, चित्र सब मिलकर प्राचीन भारतवर्षका एक के सूक्ष्म भूगोलको जाननेका भाव जब हमारे भीतर अनुपम प्रत्यक्षगम्य चित्र उपस्थित करते हैं। इस उदय होगा तभी मानों इस देशके साथ हमारे परिचय प्रकारकी सामग्रीका मिलमिला न केवल भारतवर्ष के का उदीयमान मंडल पूरी तरह विकसित होगा। वेलातटों तक ही मीमित है, बल्कि सूदर समुद्रोंको कालिदासके ग्रन्थो में जो संस्कृति-सम्बन्धी सामग्री पारकर पूर्वीय द्वीपोंमे तथा उतरीय गिरिगह्वरोंके भी है उसको भी हमें जी खोलकर अपनाना होगा। उम पार मध्य एशियाके आधुनिक रेतीले प्रदेशों तक बाणभट्ट की कादम्बरी और हर्षचरित तो मानों प्राचीन फेलता चला गया है। दूसरी ओर साहित्यसे उपलब्ध जीवनम सम्बन्धित शब्दोकी प्राप्तिके लिये कल्पवृक्ष इतिहास-माधनकी सामग्री पृथिवीकी कुक्षिम जुगोकर ही हैं। उनमे आये हुए मकरिका, शालभंजिका, रक्खी हुई सोने और चाँदीकी खानोकी तरह अक्षय्य पुलकबन्ध (बुंदकीदार छींट), इन्द्रायुधाम्बर (लहरूपसे भरी हुई है। कहा जाता है कि आदिराज पृथ रिया वस्त्र) आदि अनक पारिभाषिक शब्द प्राचीन ने हिमालयको वत्स बनाकर अनेक चमकीले रत्नोका लोकजीवनकी मम्कृति पर प्रकाश डालते हैं। इस पृथिवीसे दोहन किया था। उसी प्रकार साहित्यरूपी विशाल माहित्यके सागरको मथकर हम अपने भूतकामधेनुकी उचित आराधनाके द्वारा लोकके अतीत काल के सम्बन्धमें बहमूल्य सामग्री प्राप्त कर सकते हैं, इतिहास और संस्कृति पर प्रकाश डालने वाले ममु- जो केवल गजाओकी नामावली न होकर वास्तविक उज्वल रत्नोका पुष्कल दोहन करने वाले धुरंधर पृथ सामाजिक जीवनका एक बहुरंगी चित्रपट प्रस्तुत कर की हमारे साहित्यजगतको आवश्यकता है। मर्वप्रथम सकती है। संस्कृतका विशाल साहित्य है । वेदोंमे लेकर शिवाजी अध्ययनकी यही परिपाटी बौद्ध और जैनसाहित्य के राष्ट्रीय उत्थानके काल तक संस्कृत माहित्यको जो के लिये भी चरितार्थ हो सकती है। बौद्धोंका बृहत निरन्तर धाग सहस्र मोतोंसे फुटकर बहती रही है पाली-साहित्य प्रकाशमें श्राचुका है। उसका इतिहासउसका अधिकांश भाग आज भी हमें उपलब्ध है। निर्माणमें सबसे अधिक उपयोग भी हश्रा है। पर उसमेंसे ऐतिहासिक तन्तओंको जोड जोड़कर हमें उपर जिस मौलिक दृष्टिकोणकी चर्चा की गई है उस अपने इतिहासका सुन्दर पट तैगार करना है। की शैलीम यदि समस्त पाली-बाबमयका अनुशीलन पाणिनिकी अष्टाध्यायीके गणपाठों में गोत्रों, शाखाओं किया जाय तो भारतीय संस्कृतिके महाकोषका एक और स्थानोंकी जो सूचियां हैं उनकी ओर अभी हमे सुन्दर अग तैयार हो सकता है। सौभाग्यसे बौद्धोंका ध्यान देना है। बौधायनके महाप्रवरकागड में जो संस्कृत साहित्य भी कुछ कम उपलब्ध नहीं है। और
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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