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________________ ३६४ अनेकान्त [वर्ष ५ ऐसा साहित्य,जो तिब्बती भाषाके तंजुर-कंजुर संग्रहो जैनसमाजकी एक दमरी बहुमूल्य देन है। वह मध्य में अनुवादरूपमें उपस्थित है, बहुत ही मूल्यवान है। कालका जैनसाहित्य है जिसकी रचना संस्कृत और इमसे भी अधिक महत्वपूर्ण चीनी त्रिपिटकोंका धुरंधर अरभ्रंशमें लगभग एक सहस्र वर्षों तक (५०० ई०संग्रह है, जिसमें मूल सर्वास्तिवादिन , महासधिक, १६०० ई०) होती रही । इसकी तुलना बौद्धों के उस पर सम्मितीय आदि बौद्ध-निकायोके अनेक प्राचीन ग्रन्थ वर्ती संस्कृत साहित्यम हो सकती है जो मम्राट कानाक सुरक्षित हैं। इस माहित्यको ऐतिहासिककी पैनी आंख या अश्वघोपके समयसं बनना शुरू हुआ और बारहवीं से टटोलनेसे उसमेंस केस मूल्यवान रत्न प्राप्त किये शताब्दी अर्थात नालन्दाके अस्त होने तक बनता रहा। जा सकते हैं इसका एक उदाहरण 'महामायूरी' ग्रन्थ दानो साहित्योमे कई प्रकारको समानता और कुछ है। इसके चीनी और तिब्धती अनुवाद तथा संस्कृत विषमताएँ भी हैं। दोनों में वैज्ञानिक ग्रन्थ अनेक है, मूलकी सहायतासे फेन विद्वान् सिलवा लेवाने जो काव्य और उपाख्यानोंकी भा बहुतायत है। परन्तु भौगोलिक अध्ययन सवासो पृष्ठोमे सन् १६१५ मे बौद्धोक सहजयान और गह्यसमाजम प्रेरित साहित्य जनेल एशियाटिकमें प्रस्तुत किया था वह आज भी के प्रभाव जैन लोग बचे रहे। जैनसाहित्यम ऐतिविद्वानोंका मार्ग प्रदर्शन करता है। पर आवश्यकता हासिक काव्य आर प्रबन्धोंकी भी विशेषता रही। इस बातकी है कि यह विराट् साहित्य भारतीयों के मध्यकालीन भारतीय इनिहामक लिय इस विशाल लिये सुलभ रीतिसे अनुवाद टिप्पणी के साथ प्रका- जैनमाहित्यका पारायण अत्यन्त आवश्यक है। यह शित किया जाय। तत्व अब धीरे धीरे प्रगट हो रहा है। एक ओर हर्षकी बात है कि बौद्धसाहित्यसे मब वाताम यशस्तिलकचम्प और तिलक मंजरीसं विशाल गद बराबरीकी टक्कर लेने वाला जेनोंका भी एक विशाल ग्रन्थ है जिनमे मुम्लिमकालस पहलकी सामन्ल-संस्कृति माहित्य है। इसमें एक ओर तो प्राचीन द्वादशाग का मचा चित्र है, दूसरी ओर पप्पदन्तकृत महापुराण आगमके ग्रन्ध और उनकी टीका प्राचीन पाली जैस दिग्गज ग्रन्थ है जिनम भापाशास्त्रके अतिरिक ग्रन्थोक समान श्रद्धास्पद कोटिमे है। दुर्भाग्यस उनके सामाजिक रहन-सहनका भी पर्याप्त परिचय मिलता है। प्रामाणिक और सुलभ प्रकाशनका कार्य बाद्धमाहित्य बाणभट्टकी कादम्बरीके लगभग पांचमी वर्ष बाद की अपेक्षा कुछ पिछड़ा हुआ रह गया। इसी कारण लिम्वा हई तिलकमंजरी नामक गाकथा संस्कृत महावीर काल और उनके परवर्ती कालके इतिहाम- साहित्यका एक अत्यन्त मनोहारी ग्रन्थ है। मंस्कृतिम निर्माण और तिथि-कर्मानणयम जैनमाहित्यका सम्बन्धित पारिभाषिक शब्दोका बड़ा उत्तम संग्रह अधिक उपयोग नहीं हो पाया। अब शनैः शनैः यह इस ग्रन्थम प्रस्तुत किया जा मकता है। उदाहरणार्थ कमी दूर हो रही है। यदि पाली टेक्स्ट सोमायटीकी राजप्रासादोंमें मीसमहल (आदर्शभवन, पृ० ३७३) तरह एक विशिष्ट को टिकी अद्धमागधी टेक्स्ट सोमा- का प्रचार ११ वीं मदीमें ही हो चुका था। भानुचन्द्र यटी इस साहित्य के प्रकाशन कार्यको पूरा कर देती तो और मिद्धिचन्द्र जैसे जैन उपाध्यायाने कादम्बरी पर अवश्य ही लोकमें इस साहित्यके भी समुचित प्रसार टीकालिखी. परन्तु तिलकमंजगी अभीतक मसूरीश्र का माग सहाके लिये प्रशस्त होजाता । यह भी निश्चय टीकाकारी की प्रतीक्षा कर रही है। उमितिभवप्रपंचहै कि अब वह ममय चला गया जब विदेशी विद्वान कथा और ममगइञ्चकहा भी बड़े कथाग्रन्थ है जिनम इस कार्यको हमारे लिये पृग कर देते। अब तो उन स्थान स्थानपर तत्कालीन मांस्कृतिक चित्र पाये जाते है। भारतीय विद्वानांको ही. जो जैन-विद्यामं पारंगत हैं. हर्पको बात है कि जैनों के इस मध्यकालीन माहिइम श्लाघनीय-कार्यको समझदार धनिकोंकी सहायता त्यका प्रकाशन इधर बड़ी द्रनतिम होरहा है । परन्तु से पूरा करना होगा ! पर प्राचीन अंगोंक अतिरिक्त जैन भंडागकी मम्पूर्ण प्रनिधि एक प्रकारम अझ
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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