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किरण १२]
जैनसाहित्यमें प्राचीन ऐतिहासिक सामग्री
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पहेली है। पाटनके भंडार जगत्प्रसिद्ध हैं। जैसलमेर भी चुके हैं। श्री विजयधर्मसूरिने ऐतिहासिक रासके जैनभचरम भी अनेक अलभ्य ग्रन्थ हैं । इधर संग्रह भाग १-२ का १६१६-१७ में भावनगर सरकारंजा (प्राचीन नाम कायरंजकपुर ) के दो जैन स्वतीप्रेससे प्रकाशन किया था। पुरानी हिन्दी भाषा भंडारोंके ग्रंथ भी प्रकाशमें आये है।
में उपलब्ध ऐतिहासिक रामोंका संग्रह होना चाहिए। भारतीय इतिहासकी दृष्टिस जैनोंकी इस नूतन राजपूताना और युक्तप्रान्नके भंडारोमे इस प्रकारका सामग्रीका बर्गीकरण इस प्रकार किया जा सकता है- साहित्य बहुत मिल सकता है। १. प्राचीन ऐतिहासिक काव्य- २. प्रबन्धसंग्रह__ ये काव्य विशेषविद्वान, सूरीश्वर अथवा युग- संस्कृत भापामें लिग्वे हुए पुरातन प्रबन्ध इतिप्रधान प्राचार्यों के जीवन या उनम मम्बन्धित किमी हासकी दृष्टिम बहुत मूल्यवान हैं। इनमें मेरुतुंगाचार्य महत्वपूर्ण घटनाको लेकर लिख गये गीत या रचना का प्रबन्धचिन्तामणि बहुत प्रसिद्ध है और सुन्दर हैं। हिन्दी भाषामे ऐसी रचनाओका एक अत्युत्तम मितिम मंपादित होकर मिघीजैनग्रंथमालामे छप भी संग्रह नातिहासिक जैनकाल्यग्रह' के नाम श्री चुका है। राजगेवर मूस्कृित प्रवन्धकोप भी इसी अगरचंद्र नाहटा और भंवरलाल नाहटाने संपादित ग्रंथमालामे छपा है। दूसरे पुटकर ऐतिहासिक प्रबकिया है। चारमास अधिक पृष्ठोम गीतोंका चुनाब है न्धोंको इकट्ठा करके श्री जिनविजयजी ने 'पुगतनजो भाषाके विकारमकी दृष्टिप भी ध्यान देने योग्य है।
प्रबन्धसंग्रह' नामक एक अतीच उपयोगी संग्रहग्रंथ ___एक गीतम १६-५७ वी शताब्दीक मारवाड़की प्रकाशित किया है । 'प्रबन्ध' को हम अाधुनिक शब्दों लोकदशाका केमा यथार्थ वर्णन है- जिस प्रकार में ऐतिहासिक-निबन्ध कह सकते हैं जो किमी मारवाड़ मोटा दश है स वहाक कोश भी लम्ब हैं, शामक, विद्वान या घटना-सम्बन्धी निहासिक जाननिवासी भट प्रक्रतिक है. मनम रांप नहीं रखते. फारीको लेकर लिया गया हो । मध्यकालका भारतीय कमरमे कटारी बाँधते है। बणिक लोग भी जबरे इतिहास प्रबन्धोंकी सामग्रीम लाभ उठाये विना योद्धा है, हथियार धारण किये रहते हैं, रगामिम पूर्ण नहीं बन मकता । हर्ष की बात है कि श्री जिनसपाला नही फेरते. वधर्मियांका धर्म में स्थिर विजयजीने इस प्रकारकी ऐतिहासिक मामग्री के प्रकाकरत हैं। निष्कपट वृद्धा भी लम्बा घंघट रखती हैं। शनके कार्य को बड़ी व्यवस्थितरीनिस मिघीजन जीवन में मादगी और रमाईम राबकी प्रधानता है। ग्रन्थमालामें आरम्भ किया है। चाहनांम ऊँट प्रधान है। पथिक लोग जहाँ थकते हैं ३. पावलीवही विश्राम लेने हैं, परन्तु चोरीका भय नही है। जैनसंघ एक जीविन संस्था है। इसका मंगठन मध्यकालीन जैन इतिहास में श्री हीरविजय, विजय- प्राचीनकालमे आजतक अवाधित चलता श्रा रहा सेन, विजयदव, भानुचन्द्र आदि विद्वान आचार्यों की है। जैनगुरु इम मंगठनके मेरुदण्ड हैं । इमलिये पर्यात ख्याति है, उनके संबंधमे भी इन फुटकर-गीता जैनाचार्य परंपगका अनुसंधान जैनसंघके क्रमसे लोककी श्रद्धाका अच्छा प्राभारा मिलता है। गुज- बद्ध इतिहासके लिये अत्यन्त आवश्यक है। जैनमंघ राती भापामे इस प्रकारके काव्य-गीतोंकी और के विकासका एक विस्तृत इतिहास अभी लिग्वा जाने भी अधिकता है। उनका एक संग्रह श्री जिनविजयजी को है। उसमें इस गुरुपरम्पराकी विशप आवश्यकता ने ऐतिहासिक गजेरकाव्यसंचय' के नाम किया है। होगी। ऐतिहामिक रासोंका मंग्रह भी अत्यन्त महत्वपूर्ण है। म तो जैन मंघके संगठनकी मूल रूपरेखा प्राचीन गुजराती भापाक रागों के तीन-चार सग्रह छप कल्पमूत्र में मिलती है। उसमें पृथक पृथक गणोंकी