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________________ अनेकान्त [वर्ष अनेक इष्टजनोंने दादीजीसे कहा कि तुम ऐसी दुःख-संकटकी है। पैसा आप कभी फिजूल खर्च नहीं करती, अवस्थामें इन्हें बाहर क्यों भेजती हो? अपनी छातीमे परन्तु ज़रूरत पड़ने पर उसके खुले हाथों खर्चने में लगाकर क्यों नहीं रखती? परन्तु विद्यासे प्रेम रखने वाली कभी संकोच भी नहीं करतीं। इन्हीं सब बातोंमें श्रापका और अपने श्राश्रितजनाका • ला चाहने वाली दादीजीने महत्व मंनिहित है। उनकी एक नहीं सुनी और स्वयं अकेलेपनके कष्ट झेलकर मेरे मुस्तारकारी छोड़ने पर श्रापने नानीतासे देवबन्द भी वर्षों तक इन्हें बाहर ही रखकर शिक्षा दिलाई । इन श्राकर मुझे शाबाशी दी और मेरी कमर हिम्मतकी थपदोनोंके प्रति चन्दाबाईजीकी श्रद्धा बहुत बढ़ी-चढ़ी है। थपाई। इसपर गृहिणीको कुछ बुरा भी लगा क्योंकि पिता गुणमालाका सती-साध्वी-जैसा जीवन श्रापको पसन्द आया भाई आदि और किसीने भी मेरे इस कार्यका इस तरहसे और जयवन्तीकी बुद्धिमत्ता तथा सुशीलता मनको भा गई। अभिनन्दन नहीं किया था। परन्तु बादको श्रापके समझाने इसीसे जब कभी पंडिनाजीकी इच्छा होती है वे इन्हें अपने पर वह भी समझ गई। पास बुला लेती हैं, यात्रादिकमें अपने साथ रखनी हैं और स्वयं भी कई बार इधर इनके पास आई हैं और सदैव देहली-कगलबाग़ में जब समन्तभद्राश्रम था तब एक बार मारे स्टाफ़के बीमार पड़ जाने और अनेकान्तके प्रत इनके हितका ख़याल रखती हैं। चि. जयवन्तीको अापने 'जैनमहिलादर्श' की उपसंपादिका भी नियन कर रखा है। श्रादि कार्योंकी माग मारीके कारण मुझे पाँच दिन तक भोजन नहीं मिला था उस समय खबर पाकर श्राप ही अपनी श्राशाकी एकमात्र केन्द्र चि० जयवन्तीका भले नानौताये देहली पहुंची थीं और थापने छठे दिन मुझे प्रकार पालन-पोपण एवं सुशिक्षण सम्पन्न करके और भोजन कराया था। वीरम्मेवामन्दिरकी स्थापनाके अवसरमे प्रतिष्टित घरानेके योग्य वर वा० त्रिलोकचन्द बी.ए. के श्राप उसके हरएक उत्पवमें श्रातिथ्य-सेवाके लिए स्वयं साथ उसका सम्बन्ध जोडकर दादीजीने सोचा था कि वह पधारती रही हैं अथवा अपनी सुयोग्य पुत्री गुणमाला तथा जमींदारेका सारा भार चि. त्रिलोकचन्द वकील के सुपुर्द पीती जयवन्ती को भेजती रहीं हैं जिससे मुझे कोई विशेष करके निश्चिन्त हो जावेगी और अपना शेष जीवन पूर्णतया चिन्ता करनी नहीं पड़ी। इसके सिवाय, बीमारियोंके अत्रधर्मध्यानके साथ व्यतीत करंगी, परन्तु दुर्दैवको यह भी सर पर श्राप बराबर मेरी खबर लेती रही है, मानाकी तरह इष्ट नहीं हया-अभी सम्बन्धके छह वर्ष भी पूरे महीने में मेरे हिना ध्यान रखती और मुझे धैर्य बँधाती रही हैं। पाये थे कि त्रिलोकचन्दका अचानक स्वर्गवास होगया! इस समय भी श्राप मेरी बीमारीकी ख़बर पाकर और यह जयवन्ती भी बाल विधवा बन गई ! पुत्रके पहिले ही चल जानकर कि सारा श्राश्रम बीमार पड़ा है, वीरसेवामन्दिर बसनेमे उमकी गोदभी खाली होगई ! और दादीजीकी में पधारी हुई हैं और रोटी-पानीकी कुछ व्यवस्था कर रही मारी शाशानों पर पानी फिर गया ! हैं। सकार्योंके करनेमें मुझे सदा ही आपसे प्रेरणा मिलती इस तरह दादीजका जीवन एक प्रकारस दुख और संकटकी रही है--कभी भी आप मेरी शुभ प्रवृत्तियों में बाधक नहीं ही करुण कहानी है! परन्तु श्रापने बड़ी वीरताके साथ हुई। इन सब सेवाओंके लिए मैं आपका बहुत ही उपकृन हूं और मेरे पास शब्द नहीं कि मैं श्रापका समुचिन श्राभार संकटॉका सामना किया है और धैर्यको कभी भी हाथसे। जाने नहीं दिया। श्राप सदा बातकी सच्ची और धुनकी पक्की . प्रकट कर सकूँ। रही हैं। दूसरे थोडेसे भी उपकारको श्रापने बहुत करके वीरसंवामन्दिरसे श्राप विशेष प्रेम रखती हैं और सदा माना है। जिसे आपने एक बार वचन दे दिया. फिर लाख उसकी उन्नतिकी भावनाएँ करती रहती हैं । हालमें श्रापने प्रलोभन मिलने तथा प्रचुर श्राधिक लाभ होनेपर भी श्राप चीरसेवामन्दिरको १०१) रु. की सहायता भी प्रदान उससे विचलित नहीं हुई-इस विषयकी कई रोचक की है। घटनाएं हैं, जिन्हें यहां देने के लिए स्थान नहीं जुगलकिशोर मुख्तार
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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