________________
२६४
अनेकान्त
[वर्प ५
चारित्रमार नामका एक संस्कृत ग्रन्थ भी चामुण्ड- श्राचार्य नेमिचन्द्रने लिखा है कि जिनके चरणों रायका बनाया हुआ कहा जाता है परन्तु वह एक के प्रसाकमे वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि शिप्य मंसारतरहम मंग्रह ग्रन्थ है आर वहुत करके तत्त्वार्थकी समुद्रसे पार हो गए उन अभयनन्दि गुरुको नमस्कार सर्वार्थसिद्धि टीकापरमे मह किया गया है। हो । इसम भी मालूम होता है कि ये वीरनन्दि समसामयिक प्राचार्य
चन्द्रप्रभकाव्यक कर्ता ही है जो अपनेको अभयनन्दि
का शिष्य बतलाते है। आगे इन सबके अस्तित्वकाल चामुण्डरायके ममयमें अनेक बड़े-बड़े विद्वान आचार्य हो गये हैं। उनम में एक तो उनके गुरु
पर जो विचार किया गया है, नमसे भी यही निश्वय अतिजर्मन थे जिनका उल्लेख ऊपर किया जाचुका है
होता है। और जो बहत करके सेनमंधक थे। उन्हें 'भवनगरु' इन्दनन्दि नामक अनेक प्राचार्य हो गये हैं। कहा गया है । दृमर है अभयनन्दि-जिनक, वीर
हमाग खयाल है कि तावतार या श्रतपंचमी कथाके नन्दि, इन्द्रनन्दि, कनकनन्दि और नमिचन्द्र नाम कत्त) इन्द्रनन्दि यही होग; क्योकि श्रृतावतारसे मालूम के शिप्य थे । इनमम नमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवर्ती होता है कि वे मिद्धान्तशात्रांम खूब अच्छी तरह प्रमिद्ध गोम्मटमार श्रार त्रिलोकमारके कर्ता हैं। वे परिचित थे अ.र गम्मरसार (कर्मकाण्ड) में उन्हें
अपनका अभयनन्दिका ही शिष्य लिखते है। श्रुनमागरपारगामी लिग्या भी है। वीरनन्दि और इन्द्रनन्दि उनके ज्येष्ठ गुरु भाई
कनकनन्टिक विषयमे इतना ही मालूम होता है थे श्रीर इस लिये उन्होंने एक दो जगह उनको भी कि गोम्मटमारकी रचनामें उनका भी हाथ था और गुरुतुल्य मानकर नमस्कार किया है और अपनेको
वे शायद इन्द्रनन्दिरी छोटे थे । कर्मकाण्डकी एक उनका चन्द्र (वत्म) या शिप्य भी कहा है। गाथाके अनुसार उन्होंने इन्द्रनन्दि गुरुके पास सब ये वीरनन्दि ही चन्द्रप्रभ महाकाव्य के कर्ता हैं।
मिद्धान्त सुनकर मत्त्व-स्थानकी रचना की थी। इन्होने इस काव्यको प्रशस्तिमें लिखा है कि मेरे गुरु गुणग्रामाम्मोवे: मुकृतवममित्रमदमाका नाम अभयनन्दि था जो देशीगगाके प्राचार्य थे। मसायं मस्सन्मान महाशा मतामन । अभयनन्दिक गुरु विबुधगुणनन्दि और प्रगुरु म नच्चियो ज्येष्ठ: शिशिर करमाभ्य: ममभवत् (दादागुरु) गुगणनन्दि थे ।
प्रावग्व्यानो नाम्ना विबुधगुग्णनन्दीत भुवने ॥ २॥ १ अजनमगागुणगणममूटमधारिजियसगगुरू ।
मनिकननुतपाद प्रास्तमिथ्यावाद: भुवणगुरु जम्मगुरु मा गयो गोम्मटो जयउ । ७३३॥ जी.का. मकलागुणममृदम्तस्य शिष्यः प्रमिशः। १२ दि मिचन्द्रम एमाग पसुदेणभयगादवच्छेग । अभवदभरनन्दी जनधर्माभिनन्दी रहयो निलायमारो ग्वमंन नं बहमुदाइरिया ॥-त्रि.सार.
स्वमिजित मधुभव्यलोककवन्धुः ॥ ३॥ १३ गामिऊगा अभयादि मुदमागरपारगिंदणंदिगुरूं । भव्याम्मी नविबोधनाद्यनमतर्भावममानविपः
वग्वारगं दिया पयडीग पच्चयं योच्छं ॥७८५-क. का. शिष्यम्नस्य गुणाकरम्प सुधिय: श्रीवीरनन्दीत्यभूत । ग्मद गुणग्यणभूमणमितानियमहद्धि भवभाव । स्वधं नाग्विलव हमाम्य भुवन-रख्यातकीर्ने: मना वरवरगादचदं गिम्मलगुणमिदगंदिगुरूं |८६६-क.का. ममत्मु गनयन्त यस्य जयिनी वाचः कुतर्काङ्कशाः ॥ वीग्दिणादेवच्छेण पसुदेण्भयगदिसिस्मेण ।
१५ जम्म य पायघमाएगाणं ममाग्जामुत्तिएगो । दमणचरित्तलद्वी मुयिया णे मिचं देण ॥६४८-ल०मा० वाग्दिणदिवच्छो णमामि इन्द्रणं दिगुरूं ॥४३६क. का. १४ बभूव भव्याम्बुजपद्मबन्धुः पनि नीना गणभृत्मनः। १६ वग्इंदणदिर रुपी पासे मोउग्ण मयल मिद्धतं ।
मदग्रणीशिगणाग्रगण्या गुणाकर: श्रीगुणनन्दिनामा॥१॥ मिरिक एयण दिगुरुणा सत्तट्ठाणं समुद्दिटम॥३६६॥क०का०