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कविवर भगवतीदास और उनकी रचनाएँ
(लेखक-५० परमानन्द जैन, शास्त्री)
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गिम्बर जैनसमाजमे हिन्दीभाषाक अनंक गद्य-पद्य- म श्रोसबाल जानिके कटारियागोत्री माहू दशरथलालजी
लेखक विद्वान और कवि हो गये हैं; परन्तु दिगम्बर एक बड़े ही भद्र पप थे | आप आगरेके प्रसिद्ध व्यापारियो जनसाहित्यका कोई मुकम्मल सूची न होनेसे श्राधकाश मंस थे और पण्योदयवश आपपर लल्मीकी बड़ी कृपा थी। विद्वानोंकी वे अमूल्य कतिया आँखोस श्रोझल हुई यत्र नत्र विशाल सन्यात्तक स्वामी होते हुए भी अभिमान आपको अन्य-भण्डारोंमे ही बन्द पड़ी हैं और दीमको चहा आदि छकर नहीं गया था । अापके सुपत्र साहूलालजी भी पितासे का भोज्य बन रही हैं । इसी कारण अधिकाश जनता हिन्दी किसी बातमे कम न थे, बड़े ही धर्मात्मा और उदार सजन जैनमाहित्यसे प्राय: अपरिचित है। फिर भी हिन्दी जैन
थे। इन्दी माहूलाल जीके सुपुत्र हमारे चरित्र गयक पं. माहित्यके जो ग्रन्थ अभी तक प्रकाशमे श्राए है उनपरसे
भगवतीदाम है, जो एक बड़े ही उदार तथा सदाचारी इतना तो सष्ट कहा जा सकता है कि भारतीय हिदीमाहिल्य
विद्वान थे श्राप १७ वी १८वी शताब्दीके प्रतिभा सम्पन्न कति के इतिहासमें जनविद्वानोंका भाग हाथ रहा है-उनकी
थे और आध्यात्मिक ममयसारादि ग्रन्थोके बड़े ही रसिक थे । बहुमूल्य अनूठी रचनाएँ हिन्दी माहित्यको अनुपम देन हैं।
श्रापका अधिक समय तो अध्यात्म ग्रन्योंके पठन-पाटन तथा कविवर बनारसीदास आदि कुछ जैनकवियोंकी रचनाएँ
गृहस्थोचित षट्कर्मोके पालन करनेमे व्यतीत होता था सामने अानेसे विद्वान तथा सर्व साधारणजन उनका रम
और शेष ममयका सव्यय विद्वद्गाष्ठी, तत्त्वचर्चा एवं स्वाद ले रहे है और देख रहे हैं कि वे कितनी सरस न्या
हिन्दी भाषाकी भावपूर्ण कविता के करनेमे हाता था। गम्भीर अर्थको लिए हुए है।
श्राप प्राकृत-सस्कृत तथा हिन्दी भाषाके अभ्यासी होने के ___कविवर भगवनीदास पं. बनारसीदासके ममकालीन
साथ साथ उर्दू, फारमी, बंगला तथा गुजरानी भाषाका भी विद्वान ही नहीं, किन्तु उनके माधर्मी पंचमित्रांमसे तृतीय
अच्छा ज्ञान रखते थे, इतना ही नहीं, किन्तु उर्दू और ये*। बनारसीदासने अपने नाटक समयसारम इनका 'सुमन'
गुजरातीमे तो अच्छी कविता भी करने थे । कवितापर विशेषण के साथ उल्लेख किया है । श्रागरा मुग़ल
श्रापका असाधारण अधिकार था। श्रापकी काव्यकला हिंदी बादशाइतके जमानेमे खूब समृद्ध रहा है, शाहजहाँके राज्य
साहित्य-संसारमे निराली छटाको लिये हुए हैं उसमे कहीपर काल मे नो उसकी प्रतिष्ठा और भी बढी है । जयपुर के
भी शृङ्गार रस जैसे रसोका और स्त्रियोकी शारीरिक सुन्दरता समान अागरा भी दि. जैन विद्वानोंका कुछ समय तक केन्द्र रहा है। कविवर बनारसीदाम, पं. रूपचन्दजी आदि
का वह बढ़ा चढ़ा हुआ वर्णन उपलब्ध नहीं होता, विद्वानोंने अपने निवाससे उसे पवित्र किया था। कविवर
जिससे मानव श्रात्मा-पतनकी ओर अग्रसर होता है। आपकी भगवतीदामकी तो वह जन्म भूमि ही थी। उस समय आगरा
रचनाएँ प्राय: वैराग्य रससे परिपूर्ण हैं और बड़ी ही रसोली,
मनोमोहक तथा पढते ही चित्त प्रसन्न हो उठता है और रूपचंद पंडित प्रथम दुनिय चतुभुज नाम । तृतिय भगौतीदास नर कौरपाल गुनधाम || २६ ।।
छोड़नेको जी नहीं चाहता। उनके अध्ययन और तदनुकूल
वर्तनसे मानव जीवन बहुतकुछ ऊँचा उठ सकता है। धमतास ये पंच जन मिलि बैथे इकठौर । परमारथ चरचा करें इनके कथा न और ॥ २७ ॥ वास्तवमे हमारे कविवरकी काव्य-कलाका विशुद लक्ष्य
नाटक समयसार आत्म-कल्याणके साथ साथ लोककी सची-सजीव-सेवा रहा