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अनेकान्त
[ वर्ष ५
विद्यार्योसे पता लगता है कि ये लोग मायाविद्या, प्रायुध- महावीर अपनी केवलज्ञान-प्राप्तिके समय जम्भिक प्रामके विद्या, आयुर्विद्या, जादूटूना विद्या, नत्य, संगीत, वादित्र, बाहिर वैर्यवर्तनामक यक्षमन्दिरके उद्यान में ठहरे हुए थे।
चत्र और मूर्तिकला आदिमें बडे निपुण थे। इन्हीं गुणों नाग, यक्ष लोगोंके साथ इस प्रकार जैनसंस्कृतिका के कारण ये लोग भारतीयसाहित्यमें मायावी, विक्रियाधारी, घनिष्ट सम्बन्ध होनेके कारण यह स्पष्ट सिद्ध होता है, कि खग, खच्चर, विद्याधर चादि नामोंसे उल्लिखित हुए हैं। भारतकी श्रमणसंस्कृतिकी श्रन्य शाग्याओंकी तरह जैनमस्कृति
वैदिकसाहित्यसे पता लगता है कि ये लोग अधिक- के वास्तविक जन्मदाता वैदिक धार्य नहीं बल्कि भारतके तर कृष्णवर्णके थे। मृध्रवाच थे अर्थात समझमें न मलवासी यक्ष गन्धर्व. नाग राक्षस श्रादि लोग हैं। उन्ही भानेवाली प्राकृतिक भाषाये बोलते थे । इनमें विवाह की यन्त्रों-मन्त्रों वाली राष्टिमेंसे अध्यामवादकी सृष्टि हुई है। मादिके सम्बन्धमें कोई विशेष व्यवस्था बनी हुई न थी। उन्हीकी ऋद्धियोंको सिद्ध करने के लिये कायक्लेश वाले ये संस्काररहित थे। ये वैदिक ब्राह्मणोंके देवतावाद और अनष्टानों से योगसाधनाकी उत्पत्ति हुई है। उन्हीकी वीरपाशिक क्रियाकाण्डको न मानते थे। ये पितरों में श्रद्धा रखते। उपासनावाली वृत्तिमेमे अर्हन्तीकी उपासना, उनके चैय थे और वीर उपासक थे। ये अपने अपने पित्रों और स्तूप, उनकी मूर्तियों और मन्दिर बनानेकी कलाका के लिए श्राद्ध-तर्पण करते थे। ये रुद्र, वरुण, मरुत श्रादि विकास हुआ है। इमलिये जैनअनुश्रतिके अनुसार यक्ष. अपनी अपनी जातियोंके वीरोंकी मूर्तियां बनाते थे। यक्षणियोंका अर्हन्तशासनके देवी-देवता कहा जाना, जैनवैदिक ऋषि इन्हें 'मुरदेवा' अर्थात जड़ देवता कहकर इन माहिन्यमें उनके लिये स्तुति और नमस्कनिके गाठोंका होना, मूर्तियोंकी निन्दा करते थे। ये इन पित्रों और वीरोंको और जैन-कलामें उनकी मृतियोंका अहंन्त-मृतियोके साथ अपनी जाति और संस्कृति, अपने नगर और ग्रामोंके साथ पाया जाना स्वाभाविक ही है। यह सब कुछ होते संरक्षक मानकर प्रत्येक नगर और ग्रामसे बाहर अनेक हृये भी श्री रामकृष्णदासजीका यह कहना कि अप्सराओंकी नाग-यक्ष-यक्षिणियोंके मन्दिर बनवाते थे। जैसे इनके भावनाका बौद्ध और जैनसम्प्रदायोंमे कहीं पता नहीं. निरा मन्दिर प्राज भारतके ग्राम और नगरोंसे बाहर बने हुए हैं। भ्रममूलक जान पड़ता है। विशेष तिथियों में उनके उत्सवम नाये जाते हैं, इनके इस तरह जैनकला भारतके प्रागैतिहासिक जीवनको उद्यानों में कहीं कहीं से श्राकर साधु लोग ठहर जाते हैं जाननेके लिये एक अनन्य साधन है। परन्तु कितना खेद है, वैसे ही महावीरकाल में भी इनके अनेक मन्दिर नगर, कि जैनसमाजका इधर-तनिक भी ध्यान नहीं है, इसीलिये प्रामोंके बाहर बने हुए थे। उनके उत्सव मनाये जाते थे।" यह कला अाज अज्ञानके कारण विलुप्तसी होती जारही है, उनके उद्यानों में श्रमण लोग आकर ठहरते थे । स्वयं इसका पता लगाने, इसकी सूची बनाने, इसकी रक्षा करने, १ "अहा देवानसृजन ते शुक्लं वर्गममध्यन् । गध्याऽसुरॉम्ते
इसका संग्रह करने और फोटो श्रादि लेनेका जैनसमाजकी कृष्णा अभवन् ॥"
-काठकसंहिताह-११
भोरसे कोई प्रबन्ध नहीं है, जिसके शीघ्र होनेकी बहुत बड़ी
जरूरत है। आशा है जैनसमाज इस ओर ध्यान देगा, २ ऋगवेद ७-१८-१३, ७-६-३ ।
और शीघ्र ही अपना एक पुरातत्त्व-विभाग खोलकर जैन३ ऋगवेद १.३३-६% १-२५.१३% ५-१५२-१५ । ४ (अ) ऋगवेद १०-८७-१४ ।
इतिहास और कलाकी अस्त-व्यस्त पड़ी सारी सामग्रीको
संकलित करनेका श्रेय प्राप्त करेगा। (at)I am therefore of opinion that there were images of gods in Rgvedic times, though their worship was com deued
धीरसेवामन्दिर, सरसावा by some of the advanced Aryan tubes - (A.C. Das Rgvedic culture 1925,P145) ६ श्राचारागसूत्र २-२४-३५ । व्याख्याप्रति E-431
. रामकृष्णदास । भारतीय मूर्तिकला १६३६ पृ०४६