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________________ [ वर्ष ५ प्रवृत्त कराने वाले थे—उन अजित तीर्थंकरका परमपवित्र - पापक्षयकारक और पुण्यप्रबर्धक — नाम आज भी असंख्यात काल बीत जीनेपर भी - लोकमें अपनी इष्टसिद्धिरूप विजय के इच्छुक जनसमूहकेद्वाराहर मंगल के लिये अपनी प्रत्येक इष्टसिद्धिके निमित्त - सादर ग्रहण किया जाता है- भव्यजनों की दृष्टिमें वह बराबर महत्वपूर्ण बना हुआ है ।' २ अनेकान्त यः प्रादुरासीत्प्रभुशक्ति-भूम्ना भव्याशयालीन कलंक- शान्यै । महामुनिर्मुक्त-घनोपदेहो यथारविन्दाऽभ्युदयाय भास्वान् ॥३॥ 'घातिया कर्मोंके आवरणादिरूप उपलेपसे मुक्त जो महामुनि ( गणधरादि मुनियों के अधिपति) भव्य नोंके हृदयों में संलग्न हुए कलंकोंकी - अज्ञानादि दोषों तथा उनके कारणीभूत ज्ञानावरणादि कर्मोंकी - शान्ति के लिये -- उन्हें समूल नष्टकर भव्यजनोंका आत्म-विकास सिद्ध करनेके लिये - जगतका उपकार करने समर्थ अपनी वचनादि-शक्तिकी सम्पत्ति के साथा प्रदूर्भूत हुए, जिस प्रकार कि मेघोंके आवरण मुक्त हुआ सूर्य कमलोंके अभ्युदयके लिये उनके अन्तः अन्धकारको दूरकर उन्हें विकसित करनेके लिये - अपनी प्रकाशमय समर्थ शक्ति-सम्पत्तिके साथ प्रकट होता है ।' येन प्रणीतं पृथु धर्मतीर्थ ज्येष्टं जनाः प्राप्य जयन्ति दुःखं । गाङ्गं हृदं चन्दनपङ्कशीतं गजप्रवेका इव धर्मताः ॥ ४ ॥ '(उक्त प्रकारसे प्रादुभूत होकर) जिन्होंने उस धर्मतीर्थका सम्यग्दर्शनादि रत्नत्रय, उत्तम क्षमादि दश लक्षण और सामायिकादि पंचचारित्र धर्मके प्रतिपादक आगमतीर्थका - प्रणयन किया- प्रकाशन कियाजो महान है-सम्पूर्ण पदार्थोंके स्वरूप- प्रतिपादनकी दृष्टिसे विशाल है-, ज्येष्ठ है - समस्त धर्मतीर्थोमं प्रधान है, और जिसका आश्रय पाकर भव्यजन (संसार- परिभ्रमण - जन्य ) दुःख - सन्ताप पर उसी प्रकार विजय प्राप्त करते हैं— उससे छूट जाते हैं- जिस प्रकार कि ग्रीष्मकालीन सूर्य के प्रतापसे सन्तप्त हुए बड़े बड़े हाथी चन्दनलेपके समान शीतल गंगाद्रहको प्राप्त होकर अथवा गंगाके अगाध जल में प्रवेश करके सूर्य तापजन्य दुःखको मिटा डालते है ।' स ब्रह्मनिष्ठः सम मित्र - शत्रुर्विद्याविनिर्वान्ति कपाय-दोषः । लब्धात्मलक्ष्मीरजितोऽजितात्मा जिन श्रियं मे भगवान्विधत्ताम् ||५|| - (स्वयम्भू स्तोत्र) 'जो ब्रह्मनिष्ठ थे - अनन्य श्रद्धाके साथ आत्मामें अहिंसाकी पूर्ण प्रतिष्ठा किये हुए थे -, (इसीमें) सम-मित्र-शत्रु थे – मित्र और शत्रुमें कोई भेद-भाव न करके उन्हें आत्मदृष्टिसे समान अवलोकन करते थे, आत्मीय कपाय दोषोंको जिन्होंने सम्यग्ज्ञानाऽनुष्ठानरूप विद्याके द्वारा पूर्णतया नष्ट कर दिया थाआत्मापरमे उनके आधिपत्यको बिल्कुल हटा दिया था - ( ओर इसीसे ) जो लब्धात्मलक्ष्मी हुए थे— अनन्त ज्ञानादि आत्मलक्ष्मीरूप जिनश्रोको जिन्होंने पूर्णतया स्वाधीन किया था - ; ( इस प्रकार के गुणो से विभूषित) वे श्रजितात्मा - इन्द्रियों के आधीन न होकर आत्म स्वरूपमें स्थित भगवान अजितजिन मेरे लिये जिनश्री का— श्रुद्धात्मलक्ष्मीकी प्राप्तिका - विधान करे । अर्थात मै, उनके आराधन-भजन- द्वारा उन्हीका आदर्श सामने रखकर, अपनी आत्माको कर्मबन्धनमे छुड़ाता हुआ पूर्णतया स्वाधीन करनेमे समर्थ होऊ, और इस तरह जिनश्रीको प्राप्त करनेमें वे मेरे सहायक बने ।'
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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