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________________ जैनकला और उसका महत्त्व (लेखक-श्री बाब जयभगवान जैन बी० ए० वकील ) जैन कलाकी विशेषता: सौम्य, सुन्दर और सुदृढ बनी है। भारतकी पुरानी संस्कृतिको जाननेके लिये जहाँ जैन- वास्तु-कलामें इसने अर्हन्तोंके रहनेके लिये हजारों साहित्य का अध्ययन एक जरूरी चीज़ है। वहाँ वसतिका और विहार बनाये हैं. गुफायें और उपाश्रय बनाये जैनकलाका अध्ययन भी कुछ कम महत्त्वकी चीज़ नही है। हैं। इनके मृतक अवशेषों की रक्षाके लिये हजारों चैत्य जैनकला अपनी विशेषताओंके कारण भारतीय कलामें एक और स्तूप खडे किये हैं। इनके निर्वाण-स्थानोंको याद रखने अद्वितीय स्थान रखती हैं। के लिये हजारों निसीदिका, और चरणपादुकाएँ बनाई हैं। यह कला श्राजकी सभ्यताकी चीज़ नहीं है, यह बहुत इनके पञ्चकल्याणकोंकी स्मृतिमे मुख्य मुख्य स्थानोंपर तीर्थ पुरानी सायनाकी चीज है। यह उन अादर्शोकी चीज़ है, बनाये हैं। इनकी मतियोंकी पूजा-प्रतिष्ठा करनेकेलिये हजारों यह उन मान्यताओंकी उपज है, जो भारतमे वैदिक मन्दिर और महनकट चैत्यालय बनवाये हैं । इनके शास्त्र आर्यगण के श्रानेमे भी पहले यहाँके रहने वाले व्रात्य लोगों प्रवचनके लिये सभाभवन, और सभामंडप बनवाये हैं। मे प्रचलित थी। यह उन लोगोंकी सृष्टि इनकी कीर्तिको फैलानेके लिये अनेक मामहै जो ध्यानी बीनगगी दिगम्बर अर्हन्ताको स्तम्भ और कीर्तिस्तम्भ खड़े किये हैं। अपने जीवनका श्रादर्श समझते थे, जो उन्हें इन्हे सुन्दर तोरणों स्तम्भो, पायागपटीं' साक्षात परमात्माका रूप मानते थे, जो परमेष्टिपटों वेदियों बाडोसे खूब अलंकृत परमात्मपद-अमृतपद-निर्वाणपदको जीवन किया है। का ध्येय मानते थे, जो अहिंसा-संयम, ___ इनमें कितने ही एलोरा, बादामी तप-त्याग, ज्ञान-ध्यानको मुक्तिका मार्ग श्रादिके मन्दिर खडी चट्टानोंको खोदकर जानते थे। यह उन लोगोंकी कृति है जो पर्वतके भीतरी भागमे बनाये गये हैं, परमार्थक सामने सब ही अर्थोको तुच्छ कितने ही देवगढ़, प्राबू, शत्रुजय श्रादि समझते थे जो मोक्ष-मुम्बके सामने सब ही स्थानामें करोडोकी सम्पत्ति लगाकर ऐहिक सुखाको हेय गिनते थे, जो पाहन्य विशाल दिव्य मन्दिर बनवाये गये हैं, विभूतिके सामने समस्त विभूतियोको धूल ... खण्डगिरि और तेरापुर आदि स्थानोमे म्बयाल करते थे। लेखक कितनी ही पहाडी गुफाएं बनाई गई हैं। इनकी धार्मिक श्रद्धा, धार्मिकप्रियता, धार्मिक संलग्नता १.२. EDIgraphica Indica vol. l pari कितनी बढ़ी चढ़ी थी, इसका अन्दाज़ा जैनकलाकी XIV March 1894 P. 314. विशालता, बहुलता, विस्तार और बारीक कारीगरीको "The Times seems to be a distincदेखनेसे लग सकता है। कलाका कोई अंग ऐसा नही जिग्ये tive feature of the ancient Jain इन्होंने अपने हृदयस्थ भावोंको प्रगट करनेके लिये अपना Art, as neither the Buddhists, nor माध्यम न बनाया हो, जिसे इन्होने अपने भक्ति रसको the orthodox sects mention them, दर्शानेके लिये अपना साधन न बनाया हो। इन्होंने वास्तु- In the more modern Jaina temples कला, मृतिकला, चित्रकला श्रादि सब ही कलााग्मे खूब we find instead of them slabs काम लिया है। इसी लिये जैनकला इन सब ही अंगाये called पंचपरमेष्टिपट, चतुर्विंशति तीर्थकरपट"
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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