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बाबा भागीरथजी वर्णीका स्वर्गवास !!
( लेखक-पं० परमानन्द जैन शास्त्री )
बाबा भागीरथजी वर्णी जैनसमाजके उन महापुरुषों गया है ! फिर भी उनके त्याग और तपस्याकी पवित्र स्मृति मेंसे थे जिन्होंने श्रा'मकल्याणके साथ साथ दूसरों के कल्याण हमारे हृदयको पवित्र बनाये हुए है और वीरसेवामन्दिरमें की उत्कट भावनाको मृर्तरूप दिया है। बाबाजी जैसे श्रापका ३॥ मासका निवास तो बहुत ही याद आता है। जैनधर्मके दृढ़श्रद्धानी, कष्टसहिष्णु और आदर्शयागी संसार बाबाजीका जन्म सं० ११२५ में मथुरा जिलेके पण्डापुर में विरले ही होते हैं। आपकी कषाय बहुत ही मन्द थी। नामक ग्राममे हुआ था। आपके पिताका नाम बल्देवदास मापने जैनधर्मको धारणकर उसे जिस माहस एवं प्रारम- और मासाका मानकौर था। तीन वर्षकी अवस्थामें पिताका विश्वासके साथ पालन किया है वह सुवर्णाक्षरोंमें अङ्कित ग्यारह वर्षकी अवस्थामें माताका स्वर्गवास हो गया था। करने योग्य है। आपने अपने उपदेशों और चरित्रबलसे आपके माता पिता गरीब थे इस कारण आपको शिक्षा प्राप्त सैंकड़ों जाटोंको जैनधर्म में दीक्षित किया है-उन्हें जैनधर्म करनेका कोई साधन उपलब्ध न होसका। आपके माता पिता का प्रेमी और हदश्रद्धानी बनाया है। और उनके भाचार- वैष्णव थे। अत: आप उसी धर्मके अनुसार प्रात:काल विचार-सम्बन्धी कार्यों में भारी सुधार किया है। आपके स्नानकर जमुना किनारे राम राम जपा करते थे और गीली जाट शिष्योंमेंसे शेरसिंह जाटका नाम खासतौरसे उल्लेख- धोती पहने हुए घर पाते थे। इस तरह आप जब चौदह नीय है, जो बाबाजीके बढे भक्त हैं, नगला जिला मेरठके पन्द्रह वर्षके होगए तब आजीविकाके निमित्त दिली पाए । रहने वाले हैं और जिन्होंने अपनी प्रायः सारी सम्पत्ति जैन दिल्ली में किसीसे कोई परिचय न होने के कारण सबसे पहले मन्दिरके निर्माण कार्य में लगादी है। इसके सिवाय खतौली श्राप मकानकी चिनाई के कार्य में इंटोको उटाकर राजोंको देने और आसपासके दस्सा भाइयोंको जैनधर्ममें स्थित रखना का कार्य करने लगे। उससे जब ५.६ रुपये पैदाकर लिये आपका ही काम था। आपने उनके धर्मसाधनार्थ जैन- तब उसे छोड़कर तोलिया रूमाल भादिका बेचना शुरू कर मंदिरका निर्माण भी कराया है आपके जीवनकी सबसे बड़ी दिया। उस समय आपका जैनियोंमे बदा द्वेष था । बाबाजी विशेषता यह थी कि आप अपने विरोधी पर भी सदा जैनियोंके मुहल्ले में ही रहते थे और प्रतिदिन जैनमन्दिरके समष्टि रखते थे और विरोधके अवसर उपस्थित होने पर सामनेसे पाया जाया करते थे। उस रास्ते जाते हुए भापको माध्यस्थ्य वृत्तिका अवलम्बन लिया करते थे। और किसी देखकर एक सजनने कहा कि भाप थोडे समयके लिये मेरी कार्यके असफल होने पर कभी भी विषाद या खेद नहीं दुकानपर भाजाया करो। मैं तुम्हें लिखना पढ़ना सिखा करते थे। आपको भवितव्यताकी अलंध्य शक्ति पर दृढ़ दूंगा। तबसे श्राप उनकी दुकान पर नित्यप्रति जाने लगे। विश्वास था। श्रापके दुबले पतले शरीरमें केवल अस्थियोंका इस ओर लगन होनेसे आपने शीघ्र ही लिखने पढ़नेका पंजर ही अवशिष्ट था, फिर भी अन्त समयमें आपकी मानसिक अभ्यास कर लिया। सहिष्णुता और नैतिक साहसमें कोई कमी नहीं हुई थी। एक दिन पाप यमुना स्नानके लिये जा रहे थे, कि स्याग और तपस्या आपके जीवनका मुख्य ध्येय था, जो जैनमन्दिरके सामनेसे निकले, वहाँ 'पद्मपुराण' का प्रवचन विविध प्रकारके संकटों-विपत्तियों में भी आपके विवेकको हो रहा था, रास्ते में मापने उसे सुमा, सुनकर भापको उससे सदा जाग्रत (जागरूक) रखता था। खेद है कि वह भादर्श बना प्रेम होगया और मापने उन्हीं सजनकी मार्फत पन त्यागी माज अपने भौतिक शरीरमें नहीं है, उसका ईसरीमें पुराणका अध्ययन किया। इसका अध्ययन करते ही भापकी २६ जनवरी सन् ४२ को समाधिमरण पूर्वक स्वर्गवास हो रष्टिमें सहसा नया परिवर्तन होगया, और जैनधर्मपर प