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________________ किरण ] महाकवि स्वयंभु और त्रिभुवनस्वयंभु ३०५ इसे पूरा देनेकी ज़रूरत नहीं समझी। परन्तु इससे यह इन कवियोंमें जैन कौन कौन हैं और अजैन कौन, यह सिद्ध हो जाता है कि स्वयंभु छन्दके कर्ता और पउमचरिउके हम नहीं जानते। हमारे लिए हाल, कालिदास मादिको कर्ता एक ही हैं, जो श्रीहर्षके निपुणवको अपने दोनो छोड़कर प्रायः सभी अपरिचित हैं। फिर भी इनमें जैन ग्रन्थों में प्रकट करते हैं। कवि काफी होंगे बल्कि अपभ्रश कवि तो अधिकांश जैन ३-स्वयंभुदेवको उनके पुत्रने 'छन्दचूडामणि' कहा ही होंगे। क्योंकि अब तक अपभ्रंश साहित्य अधिकांशमें है। इससे भी अनुमान होता है कि वे छन्दशास्त्र के विशेषज्ञ उन्हीका लिखा हुआ मिला है। थे और इसलिए उनका कोई छन्दोग्रन्थ अवश्य होना वेताल' कविक पद्यके प्रारभिक अंशका जो उदाहरण चाहिए। दिया है, उससे वह जैन जान पड़ता है। चौथे अध्यायके स्वयंभछन्दमें माउरदेवके कुछ पद्य उदाहरणस्वरूप १७.११.२१.२४.२६ नं. के जो छह पथ हैं, वे दिए हैं और अधिक संभावना यही है कि ये माउरदेव या गोहन्दक हैं और हरिवंशकी कथाके प्रसंगके हैं। उससे मारुतदेव कविके पिता ही होंगे। अपने पिताके पोंका मालूम होता है कि गोइन्द भी जैन है और उसका भी एक पुत्रके द्वारा उद्धृन किया जाना मर्वथा स्वाभाविक है। हरिवशपुराण है। माउरदेव, जिनदास और चउमुहु तो पूर्ववर्ती कविगण जैन हैं ही। चतुर्मुखके जो ४-२, ६-७१, ८३, ८६, ११२ इस छन्दोग्रन्थमे प्राकृत और अपभ्र श कवियोंके नाम न० के पद्य हैं वे राम-कथा-सम्बन्धी है और उनके पउमदकर जो उदाहरण दिये हैं उनमे इन दोनों भाषाओंके उस चरिउसे लिए गए हैं । चतुर्मुखके हरिवंस, पउमचरित विशाल साहित्यका प्राभास मिलता है जो किसी समय और पंचमीचरिउ नामक तीन ग्रन्थोंके होनेका उल्लेख ऊपर अतिशय लोकप्रिय था और जिमका अधिकांश लुप्त हो चुका किया जा चुका है। है। यहाँ हम उन कवियोके नाम देकर ही संतोष करेंगे स्वयंभु-व्याकरण प्राकृत कवि-वम्हअत्त (ब्रह्मदत्त), दिवायर (दिवाकर) हमारा अनुमान है कि स्वयंभदेवने स्वयंभु-चन्दके अंगारगण, सुद्धपहाव (सुद्धस्वभाव), ललिअसहाव समान अपभ्र श भाषाका कोई व्याकरण भी लिखा था. ( ललितम्वभाव ), पंछमणाह, माउरदेव (मारुतदेव ), क्योंकि पउमचरिउके एक पद्यमें कहा है कि अपभ्रंशरूप कोईन, णागह, सुहसील (शुद्धशील), हरप्रास (हरदास), मतवाला हाथी तभी तक म्वच्छन्दतामे भ्रमण करता है हरअत्त (हरदत्त), धणदत्त, गुणहर (गुणधर), णिउण जबतक कि उसपर स्वयंभु-व्याकरणरूप अंकुश नही पड़ना, (निपुण, मुद्वराय (शुद्धराज), उन्भट(उद्भट),चंदण,दुग्गमीह और इसमें स्वयंभु-व्याकरणका स्पष्ट उल्लेख है। (दसिंह), कालिबास (कालिदास ), वेरणाम, जीउदेश ___एक और पद्यमें स्वयंभुको पंचानन सिंहकी उपमा दी (जीवदेव), जणमणाणंद, मील णिहि (शीलनिधि), हाल है, जिसकी सच्छब्दरूप विकट दाद हैं, जो छन्द और (मातवाहन ), विमलएव (विमलदेव) कुमारसोम, अलंकाररूप नखोंमे दुष्प्रेक्ष्य है और ब्याकरणरूप जिसकी मूलदेव, कुमारअन ( कुमारदत्त) तिलोमण (त्रिलोचन), केसर (श्रयाल) है। इसमे भी उनके व्याकरण ग्रन्थ होनेका अंगवइ (अंगपति), रज उत्त (गजपुत्र), वेपाल (वेताल), जोहन, अजरामर, लोणुअ, कलागुगन (कलानुराग), समय-विचार दुग्गसत्ति (दुर्गशक्ति), अण्ण, अब्भुथ (अदभुत), इसहल, पउमचरिउ और रिट्टनेमिचरिउमें स्वयंभदेवने अपने रविवप्प (रविवप्र), छइन्न, विड़ढ सुहडराम (सुभटराज), पूर्ववर्ती कवियों और उनके कुछ ग्रंथोंका उल्लेख किया है चंदराम (चन्द्रराग), जलन । जिनके समयसे उनके समयकी पूर्व सीमा निश्चित की जा अपभ्रंश कवि-चउमुहु (चतुर्मुम्ब); धुत्त, धनदेव, बइल्ल, अजदव (आर्यदेव), गोइद (गोविन्द), सुद्धसील १ कामवाणो वेग्रायस्स(शुद्धशील), जिणाम (जिनदास), विभड़ढ । 'पिच्चं णमो विगा ' एवमाह नि ।। १-१७७
SR No.538005
Book TitleAnekant 1943 Book 05 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1943
Total Pages460
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size28 MB
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