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अनेकान्त
[ वर्ष ५
सकती । पाँच महाकाव्य', पिंगलका छन्दशास्त्र, भरतका बाद नहीं हुए। वे हरिवंशपुराणकर्ता जिनसेनसे कुछ पहले नाव्यशाल, भामह और दंडीके अलंकारशास्त्र, इन्द्रका ही हुए होंगे। क्योंकि जिस तरह उन्होंने पउमचरिउ में व्याकरण, व्यास, बाणका अक्षराडम्बर (कादम्बरी) श्रीहर्ष रविषेणका उल्लेख किया है, उसी तरह रिटणेमिचरिउमें का निपुणत्व और रविषेणाचार्यकी रामकथा (पाचरित)। हरिवंशके कर्ता जिनमेनका भी उल्लेख अवश्य किया होता, समयके लिहाजसे जहाँ तक हम जानते हैं इनमें सबसे यदि वे उनसे पहले हो गये होते तो। इसी तरह श्रादे पीछेके रविषेण है और उन्होंने अपना पचरित वि. स. पुगण-उत्तरपुगणके कर्ता जिनसेन गुणभद्र भी स्वयं देव ७३४ (वीर-निर्वाण सवत् १२०३) में समाप्त किया था।
द्वाग स्मरण किये जाने चाहिएँ थे। यह बात नही जंचती अर्थात स्वयंभू वि. स. ७३४ के बाद किसी समय कि वाण, श्रीहर्ष, आदि अजैन कवियोंकी तो वे चर्चा करते
और जिनसेन श्रादिको छोड देते। इससे यही अनुमान इसी तरह जिन सब लेखोंने स्वयंभका उल्लेख होता है कि स्वयंभ दोनो जिनसेनोंसे कुछ पहले हो चुके किया और जिनका समय ज्ञात है, उनमें सबसे पहले होंगे। हरिवंशकी रचना वि. स. ८४० (श०सं० ७०५) महाकवि पुष्पदन्त हैं। पुष्पदन्तने अपना महापुराण वि. में समाप्त हुई थी। इस लिए ७३४ से ८४० के बीच स. १.१६ (श. स. ८८१) में प्रारंभ किया था। अत. स्वयंभ देवका समय माना जा सकता है। परन्तु इसकी एवं स्वयंभ के समयकी उत्तर सीमा वि० स० १.१६ है। पटिके लिए अभी और भी प्रमाण चाहिए। अर्थात वे ७३४ से १०१६ के बीच किसी समय हुए हैं। नीचे दोनों ग्रंथोंके वे सब महत्त्वपूर्ण अंश उद्धत कर प्राचार्य हेमचन्द्रने भी अपने छन्दोनुशासनमे स्वयंभुका दिये जाते हैं जिनके पाधारसे कवियोंका यह परिचय लिग्वा उल्लेख किया है जो विक्रमकी तेरहवी सदीके प्रारंभमें गया।
परिशिष्ट परन्तु यह लगभग तीन सौ वर्षका समय बहुत लम्बा
पउमचरि उके प्रारंभिक अंश है। हमारा खयाल है कि स्वयंभ रविषेणसे बहुत अधिक
१ रघुवंश, कुमारसंभव शिशुपालवध, किगतार्जुनीय और णमह" णव कमल-कोमल मणहर-वर-बहल-कनि-सोहिल्लं । महि । कोई कोई भाट्टके बदले श्रीपक नैषधचरितको उसहस्प पायकमलं ससुरासुरवंदियं सिरया ॥ १ ॥ पाँच महाकाव्योम गिनते है।
चउमुह मुहम्मि सहो दंती' भदं च मणहरो अन्थो। २ नेपधचरित के. क. श्रीहर्ष नहीं किन्तु बाणक अाश्रयदाता
विरिण वि सयभुकव्वे कि कीइ कहयणो सेयो ॥ २ ॥ मम्राट हर्ष जिनके नागानन्द, यिर्शिका श्रादि नाटक- चउमुहएवस्स सही सयंभएवस्म मणहरा जीहा। ग्रन्थ प्रमिद है। 'श्रीदों निपण: कनि.ग्रादि पय श्रीहर्षक भदस्प य गोगाहणं अज वि कहणो ण पावंति ॥ ३ ॥ नागानन्दका ही है और उसे स्वयं भुलन्दम उद्धृत किया
जलकीलाग सयंभ चउमुहावं च गोग्गहकहाण । मानसी या विषयाकनका भद्द च मच्छवेहे अज वि कइणो ण पावंति ॥ ४ ॥ स्वयंभुने 'मिरिदरिसे गिर्यारण उत्तएउ' पदम किया है। मंगलाचरण के हम पयके बाद और दसरे पद्यक पहले नेपधचरितके कर्ना श्रीहर्ष स्वयंभुमे और पुष्पदन्तमे भी मागानेवाली प्रतिम कवि ईशानशयनके सस्कृत जिनेन्द्रपीले हा है। पापदन्नने भी श्रीहर्ष (दर्पवर्तन) का ही रुद्राष्टक' क सात पद्य दिये हैं। एक श्लोक शायद छूट उल्लेख किया है।
गया है । मालूम नहीं, इनकी यहां क्या जरूरत थी। ३ देग्यो मा० जैन ग्रन्थमालाम प्रकाशिन पद्मचरितको ६ दूसरेसे छठे तकके द्य पूने की प्रतिम नहीं है , परन्तु भूमिका।
सोगानेवाली प्रतिम हैं। ४ देग्यो, निर्णयमागर-प्रेसकी आवृत्ति, पत्र १४, पं० १६। ७ मागानेरकी प्रतिम 'दंती मद्द च'।