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प्राप्त हुई है और उन्होंने उसे बड़े परिश्रम सम्पादित करके प्रकाशित कर दिया है।"
इसके पहले के तीन अध्यायोंमे प्राकृतके वर्णवृत्तका और शेषके पाँच अध्यायोंमें अपभ्रंश छन्दोंका विवेचन है । साथ ही रून्दोके उदाहरण भी पूर्व कवियो के ग्रन्थों में से चुनकर दिये गये हैं ।
इस ग्रंथका प्रारंभिक अंश नहीं है और अन्तमें भी कर्त्ता का परिचय देनेवाली कोई प्रशस्त आदि नहीं है। इसलिए सन्देह हो सकता है कि यह शायद किसी अन्य स्वयंभ की रचना हो, परन्तु हमारी समे इन्हींकी है। क्यों कि
१ इसके अन्तिम अध्यायमेनाहा दिला पढडिया आदि छन्दोंके जो स्वोपज्ञ उदाहरण दिये हैं उनमे जिनकी स्तुति है। इसलिए इसके कर्ताका जैन होना तो असन्दिग्ध है। साथ ही इ० २-६) बट्ट श्रवजाईके उदाहरण स्वरूप को धत्ता उद्घृत की है वह पउमचरिउकी १४ व सन्धिमे बहुत ही धोड़े पठान्तरके साथ मौजूद है, घत्ता छन्दका जो उदाहरण (श्र० ७ – २७ । दिया है वह पउमचरिउकी पांचवी सन्धिका पहला पद्य 'है 'वम्महतिल' का भी उदाहरण है (अ० ६-४२) वह ६५ वी सन्धिका पहला पथ" है, रश्रणावती का जो उदाहरण है (अ० ६-७४), वह ७७ वी सन्धिके १३ व " पहले के तीन अध्याय रायल एशियाटिक सोसाइटी बाम्बे के जर्नल (सन् १६३५ ५० १८-५८ ) में और शे पांच अध्याय बाम्बे वृनवमी जर्नल नवम्बर १६३६ में प्रकाशित हैं । हुए तुम्हा दुरुदुलियाई जिगावर जं जाणमु तं करेजामु ॥ ३८ ॥ जिला मे लिदाव मोहजालु, उपजद देवल्लमाम मालु । जिएगा। मं क्रम्मइ शिद्द लोवे, माक्स्वरंगे पद्दाम सुत्र लवि ३ कहाब सरुहिरई दष्टई गई श्रमिइरोबर सुहुत्तई । वित्तई ॥६
गउनमामि निलमही ।
गाय उपांत वारसा ॥
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गाय वालांदवापरु जलटि ।
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कवकका अन्तिम पथ ६ है और अ० ६ का जो ७१ वॉ पद्य है वह पउमचरियकी ७७ वीं सन्धिका प्रारंभिक प है। चांक ये कविकी अपनी और अपने ही ग्रन्थकी वत्तायें थीं, इस लिये इन्हें बिना कर्त्ताके नामके ही उदाहरणस्वरूप दे दिया गया। यदि श्रम्य कवियोंकी होती तो उनका नाम देनेकी आवश्यकता होगी। इससे भी यही निश्चय होता है कि पउमचरिउके कर्त्ता स्वयंभुदेव ही स्वयंभु छन्दके कर्त्ता हैं इस इन्दोथ ६-४२, २८ १८ १०२, १५२, ८-२६ को हरिवंशकी कथा के प्रसंग है और
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६, ६५, ६८, ६०, १५५, ८- २१.२५, ऐसे हैं जो रामकथा के प्रसंगके हैं और उदाहरण स्वरूप दिये गए हैं परन्तु कर्त्ताका नाम नहीं दिया गया है। हमारा विश्वास है कि वे सब
स्वयं स्वयंभुके हैं और खोज करने से रिट्र मिचरिउ और पउमचरिउमे उनमे अनेक पथ मिल जायेंगे।
२ रिमिचरिउके प्रारंभ में पूर्व कवियोंने उन्हें क्या क्या दिया, इसका वर्णन करते हुए कहा है कि श्रीहर्षने निपुणत्व दिया मिरिहरिस शियलिट" और श्रीहर्षके इसी निपुणश्वके प्रकट करने वाले संस्कृत पद्यके एक चरण को स्यन्द (१-१४४ ) उद्धृत किया गया है- "जह ( यथा ) - श्रीहर्षो निपुण. कविरित्यादि ।” चूंकि यह पथ श्रीहर्षके नागानन्द नाटककी प्रस्तावनामै सूत्रधारद्वारा कहलाया गया है और बहुत प्रसिद्ध है, इस लिए कविने
६ मुरवर डामरु गणु दद्रु, जासु जग कंपइ |
कहि कद एवम पद । विकिमि नि हिमाली |
स्वयंभू छन्द के मुद्रित पाठ इस पद्यको बिउ का बतलाया है, परन्तु अमल यह लेखकी कुछ पानी मालूम पडती है । 'चउमुद्द' का पद्य लिखने में छूट गया है और उसके श्रागे यह स्वयं स्वयंभूका अपना उदाहरण या गया है।
श्रीहर्षो निपुणः कपिः परिपदेयेषा गुणग्राहिणी, लोक दारि च मिराजचरितं नाट्य च दक्षा वयम् । वस्त्यैकैकमपदातिफल प्राप्तः पदं कि पुनमंद्राम्योपचयादयं समुदितः सर्वो गुणाना गणः ॥